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हजरतबल दरगाह में अशोक स्तंभ का सम्मान: सांस्कृतिक विरोध का मुद्दा

हजरतबल दरगाह में अशोक स्तंभ के सम्मान को लेकर विवाद ने सांस्कृतिक पहचान के मुद्दे को उजागर किया है। इस लेख में हम जानेंगे कि क्यों यह राष्ट्रीय प्रतीक इस्लाम-पूर्व सांस्कृतिक विरोध का शिकार बना है। कश्मीर घाटी की जटिलताओं और ऐतिहासिक संदर्भों के साथ, यह मुद्दा भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदू-मुस्लिम संबंधों की गहराई को दर्शाता है। क्या यह विवाद केवल धार्मिक है, या इसके पीछे गहरी सांस्कृतिक धारणाएं भी हैं? जानने के लिए पढ़ें पूरा लेख।
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हजरतबल दरगाह में अशोक स्तंभ का सम्मान: सांस्कृतिक विरोध का मुद्दा

अशोक स्तंभ का सम्मान क्यों नहीं?

भारत के राष्ट्रीय प्रतीक ‘अशोक स्तंभ’ को हजरतबल दरगाह की शिलापट्ट पर उचित सम्मान क्यों नहीं मिला? इसका मुख्य कारण इस्लाम-पूर्व सांस्कृतिक विरोध में निहित है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश ऐसे देश हैं, जहां के लोग अपनी मौलिक सनातन जड़ों से कटकर अरब और मध्य-पूर्व की संस्कृति से जुड़ने का प्रयास कर रहे हैं। कश्मीर घाटी का ‘इको-सिस्टम’ भी इसी मानसिकता से प्रभावित है।


हाल ही में ‘ईद-ए-मिलाद’ के अवसर पर कश्मीर में हजरतबल दरगाह की नवीनीकरण पट्टिका को तोड़ने की घटना सामने आई। यह आरोप लगाया गया कि नमाज के बाद भीड़ ने शिलापट्ट को नुकसान पहुंचाया, क्योंकि उसमें राष्ट्रीय प्रतीक ‘अशोक स्तंभ’ था, जिसे मुस्लिम पक्षकारों ने ‘इस्लाम विरोधी’ बताया। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला सहित अन्य मुस्लिम नेताओं ने भी इस पर सवाल उठाया और इसे ‘मूर्ति-पूजा’ से जोड़ा। लेकिन क्या वास्तव में राष्ट्रीय प्रतीक इस्लाम में ‘हराम’ है? या यह उस विषाक्त मानसिकता का परिणाम है, जिसने 1947 में देश का विभाजन किया?


इस्लाम में मूर्तिपूजा वर्जित है, जिसे ‘शिर्क’ कहा जाता है। लेकिन क्या ‘अशोक स्तंभ’ कोई ‘मूर्ति’ है? यह तो देश का राजकीय प्रतीक है, जो भारत सरकार, राज्य सरकारों, संसद, न्यायपालिका और सरकारी दस्तावेजों में मौजूद है। यह विवाद तब उठता है, जब कई इस्लामी देशों की मस्जिदों में उनके राष्ट्रीय प्रतीक अंकित होते हैं।


कश्मीर की हजरतबल दरगाह का हालिया उदाहरण लेते हैं। मोदी सरकार ने इसे ‘तीर्थयात्रा पुनरुद्धार और आध्यात्मिक विरासत संवर्धन अभियान’ के तहत 46 करोड़ रुपये खर्च कर नवीनीकरण किया। यह खर्च उन्हीं नोटों से हुआ, जिन पर ‘अशोक स्तंभ’ छपा है। 1993 में सर्वोच्च न्यायालय ने इमामों को वक्फ बोर्ड के माध्यम से वेतन देने का आदेश दिया था। यदि ‘अशोक स्तंभ’ को ‘मूर्ति’ माना जाता है, तो क्या इमाम भारतीय रुपयों को ठुकराएंगे?


‘अशोक स्तंभ’ का इतिहास भी गौर करने योग्य है। यह सारनाथ में स्थापित किया गया था, जिसे सम्राट अशोक ने लगभग 250 ईसा पूर्व में बनवाया था। स्वतंत्रता के बाद इसे 26 जनवरी 1950 को राष्ट्रीय प्रतीक के रूप में अपनाया गया। तब न तो भाजपा का अस्तित्व था और न ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का प्रभाव।


हजरतबल दरगाह में रखी गई पैगंबर मोहम्मद साहब की पवित्र दाढ़ी का बाल (मू-ए-मुकद्दस) मुसलमानों के लिए सम्मानित है, लेकिन इसकी इबादत नहीं की जाती। सऊदी अरब में भी मजारों और पवित्र वस्तुओं की इबादत को निषिद्ध माना जाता है।


इस संदर्भ में यह प्रश्न उठता है कि भारत के राष्ट्रीय प्रतीक ‘अशोक स्तंभ’ को हजरतबल दरगाह की शिलापट्ट पर सम्मान क्यों नहीं मिला? यह इस्लाम-पूर्व सांस्कृतिक विरोध का परिणाम है। भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश मुसलमानों के पूर्वज कभी हिंदू, बौद्ध या सिख थे। मतांतरण के बाद उन्होंने अपनी सांस्कृतिक पहचान को त्याग दिया। कश्मीर का ‘इको-सिस्टम’ भी इसी मानसिकता से जुड़ा हुआ है।


कश्मीर के नेता शेख अब्दुल्ला ने महाराजा हरि सिंह को ‘सेकुलर’ माना, लेकिन कश्मीरी मुस्लिम समाज ने उन्हें अस्वीकार कर दिया। यह मानसिकता 1947 में भी देखी गई, जब रियासती सेना की मुस्लिम टुकड़ियां मजहबी कारणों से गद्दारी कर गईं। कश्मीरी पंडितों का नरसंहार और मंदिरों पर हमले भी इसी मानसिकता का परिणाम हैं। अब हजरतबल दरगाह में ‘अशोक स्तंभ’ का पत्थरों द्वारा ध्वस्तीकरण भी इसी मानसिकता का विस्तार है।