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दिल्ली में विरोध: क्या हम असहमति की भाषा भूल गए हैं?

दिल्ली में प्रदूषण के बढ़ते स्तर के खिलाफ नागरिकों ने इंडिया गेट पर एकत्र होकर विरोध प्रदर्शन किया। यह प्रदर्शन न केवल एक आवाज उठाने का प्रयास था, बल्कि यह सवाल उठाता है कि क्या हम असहमति की भाषा भूल चुके हैं। पुलिस की कार्रवाई और नागरिकों की चुप्पी ने इस स्थिति को और गंभीर बना दिया है। क्या आज का विरोध केवल एक अभिनय बनकर रह गया है? जानें इस लेख में कि कैसे विचार की स्वतंत्रता और असहमति का महत्व आज के समाज में कम होता जा रहा है।
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दिल्ली में विरोध: क्या हम असहमति की भाषा भूल गए हैं?

दिल्ली में विरोध का स्वरूप

दिल्ली में पिछले हफ्ते से प्रदूषण की स्थिति गंभीर हो गई है, जिससे नागरिकों में चिंता बढ़ी है। इस चिंता के चलते कुछ नागरिकों ने इंडिया गेट पर एकत्र होकर अपनी आवाज उठाने का निर्णय लिया। यह प्रदर्शन केवल एक तमाशा नहीं था, बल्कि एक गंभीर संदेश था, जो शांति से और सोच-समझकर किया गया। वहां नारेबाजी नहीं हुई, न ही सड़कें जाम की गईं। बस चुपचाप उठाए गए पोस्टर थे, जिन पर सवाल लिखे थे: "हम सांस क्यों नहीं ले पा रहे हैं?", "जिम्मेदार कौन है?", "नीति कहाँ है?"


पुलिस की कार्रवाई और नागरिकों की चुप्पी

हालांकि, यह लोकतंत्र के लिए बहुत अधिक था। पुलिस ने तीस मिनट के भीतर ही प्रदर्शनकारियों पर कार्रवाई की और गिरफ्तारियां शुरू कर दीं। पहले से ही प्रदूषित हवा अब एक और बोझ उठाने लगी, वह बोझ उस लोकतंत्र का था जो सवालों को खतरा मानता है। सबसे दुखद यह था कि किसी ने भी इस पर ध्यान नहीं दिया। कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर वीडियो साझा किए, सही हैशटैग लगाए, और फिर आगे बढ़ गए। आज का विरोध भी अब एक 'फीड' की तरह हो गया है, जो कुछ घंटों के लिए गूंजता है और फिर भुला दिया जाता है।


विरोध का इतिहास और वर्तमान स्थिति

क्या यह वही देश है जिसकी सड़कों पर कभी प्रतिरोध की गूंज होती थी? आपातकाल के विरोध से लेकर मंडल आंदोलन तक, भारत में विरोध हमेशा एक जीवंतता का प्रतीक रहा है। सड़कें बोलती थीं और सत्ता सुनने को मजबूर होती थी। लेकिन आज का विरोध केवल एक अभिनय बनकर रह गया है, जिसमें न तो विश्वास है और न ही परिणाम। नारे हैं, लेकिन गहराई नहीं। यह केवल एक प्रतिक्रिया है, न कि विचार का परिणाम।


विचार की स्वतंत्रता का महत्व

150 साल पहले जॉन स्टुअर्ट मिल ने इस सच्चाई को समझा था कि स्वतंत्रता का अर्थ केवल बोलने की आज़ादी नहीं, बल्कि विचार और विमर्श की आज़ादी है। उनके अनुसार, सोचने की स्वतंत्रता के बिना बोलने की स्वतंत्रता एक नाटक है। आज हम उसी स्थिति में हैं। भारत में विरोध अब तर्क का नहीं, बल्कि ताप का अभिनय बन गया है। हम विचार से पहले प्रतिक्रिया देते हैं और बिना समझे गुस्सा दिखाते हैं।


समाज में असहमति की स्थिति

हमारे समाज में असहमति को 'अहिंदू', 'राष्ट्रविरोधी', और 'विदेशी एजेंडा' कहकर खारिज कर दिया जाता है। यह हमारे समय का नैतिक उलटफेर है, जहाँ सरकार के प्रति वफादारी ही देशभक्ति मानी जाती है। इसलिए हम असहमति को स्क्रॉल कर आगे बढ़ जाते हैं। छात्रों को राष्ट्रविरोधी कहकर नकार दिया जाता है।


विरोध की वास्तविकता

हम भूल जाते हैं क्योंकि हमें याद रखना सिखाया ही नहीं गया। इसलिए हमारे विरोध टिकते नहीं। क्योंकि वे विचार से नहीं, थकान से बने हैं। विरोध केवल सड़कों पर आने का नाम नहीं है, बल्कि यह जानने का नाम है कि आप क्यों खड़े हैं। पोस्टर से ज़्यादा ज़रूरी है आपका यकीन।


भविष्य की उम्मीद

जब नेपाल की जेन ज़ी सड़कों पर उतरी, तो भारत के बुद्धिजीवियों में उम्मीद की लहर उठी। कहा गया, "शायद भारत का युवावर्ग भी उठ खड़ा होगा।" लेकिन हम सब जानते हैं कि भारत का नेपाल क्षण नहीं आने वाला। हमने वह सोच विकसित नहीं की जो विरोध को जन्म देती है।


निष्कर्ष

भारत ने विरोध इसलिए नहीं छोड़ा कि वह खुश है, बल्कि इसलिए कि वह असहमति की भाषा ही भूल गया है। हमने मौलिक सोच की आदत खो दी है। आज लोकतंत्र केवल राज्य के दमन से नहीं, नागरिक की समर्पणवृत्ति से भी घिरा है।