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बांग्लादेश में कट्टरपंथ का बढ़ता खतरा: तालिबान के मॉडल की ओर बढ़ता देश

बांग्लादेश में कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनों का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है, जिससे देश तालिबान के शासन मॉडल की ओर बढ़ने की कोशिश कर रहा है। मुफ्ती सैयद मोहम्मद फैज़ुल करीम ने स्पष्ट किया है कि उनका संगठन बांग्लादेश को इस्लामी राज्य में बदलने की योजना बना रहा है। यह स्थिति न केवल बांग्लादेश की धर्मनिरपेक्षता के लिए खतरा है, बल्कि पूरे दक्षिण एशिया की स्थिरता को भी प्रभावित कर सकती है। यदि बांग्लादेश में कट्टरपंथ का यह वायरस फैलता है, तो इससे भारत सहित पूरे उपमहाद्वीप के लिए सुरक्षा चुनौतियाँ उत्पन्न हो सकती हैं।
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बांग्लादेश में कट्टरपंथ का बढ़ता खतरा: तालिबान के मॉडल की ओर बढ़ता देश

बांग्लादेश में इस्लामिक कट्टरपंथ का उभार

बांग्लादेश अब कट्टरपंथी इस्लामिक संगठनों के प्रभाव में पूरी तरह से आ चुका है। वहां के शासन और प्रशासन के निर्णय इस बात को स्पष्ट करते हैं कि इस्लामिक कानूनों का पालन किया जा रहा है, जबकि लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्द केवल दिखावे के लिए रह गए हैं। इस्लामिक कानूनों का पालन करना एक बात है, लेकिन बांग्लादेश का अफगानिस्तान की दिशा में बढ़ना एक गंभीर चिंता का विषय है। हाल ही में, कट्टरपंथी संगठन जमात-चर मोंई के नेता मुफ्ती सैयद मोहम्मद फैज़ुल करीम ने घोषणा की है कि उनका संगठन बांग्लादेश को तालिबान-शासित अफगानिस्तान के समान इस्लामी राज्य में बदलने की योजना बना रहा है। यह बयान न केवल बांग्लादेश की धर्मनिरपेक्षता पर हमला है, बल्कि दक्षिण एशिया में बढ़ते कट्टरपंथ का भी संकेत है।




1 जुलाई को अमेरिका में एक साक्षात्कार में, मुफ्ती फैज़ुल करीम ने कहा कि यदि उनका संगठन चुनाव जीतता है, तो वे शरीयत कानून लागू करेंगे और शासन प्रणाली अफगानिस्तान जैसी होगी। यह बयान बांग्लादेश की मौजूदा संवैधानिक व्यवस्था को सीधा चुनौती देता है। तालिबानी शासन को दुनिया भर में अल्पसंख्यकों, महिलाओं और असहमति रखने वालों के दमन के लिए जाना जाता है। ऐसे मॉडल का प्रचार करना केवल धार्मिक कट्टरता को वैधता प्रदान करना है।


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अपने कट्टर एजेंडे को नरम दिखाने के लिए करीम ने यह भी कहा कि शरीयत के तहत हिंदू अल्पसंख्यकों को अधिकार दिए जाएंगे। लेकिन यह बयान न केवल अस्पष्ट है, बल्कि संदेह के घेरे में भी आता है, क्योंकि शरीयत कानून की मूल संरचना धर्मनिरपेक्षता और समान नागरिक अधिकारों के विपरीत है। बांग्लादेश के इतिहास में ऐसे प्रयास पहले भी देखे गए हैं जब अल्पसंख्यकों को 'धार्मिक सहिष्णुता' के नाम पर दबाव का सामना करना पड़ा।




बांग्लादेश ने 1971 में पाकिस्तान से आज़ादी इस विचार के तहत पाई थी कि वह एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र होगा, जहां सभी धर्मों को समान स्वतंत्रता मिलेगी। लेकिन जमात-चर मोंई जैसे संगठनों की बयानबाज़ी न केवल इस बुनियादी विचार को झुठलाती है, बल्कि इस्लामी कट्टरता को लोकतांत्रिक माध्यमों से सत्ता में लाने का प्रयास भी करती है।




दक्षिण एशिया पहले ही पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे देशों में इस्लामिक कट्टरपंथ का सामना कर रहा है। यदि बांग्लादेश में भी यही स्थिति बनती है, तो यह न केवल क्षेत्रीय शांति को खतरे में डालेगा, बल्कि भारत सहित पूरे उपमहाद्वीप के लिए एक सुरक्षा चुनौती बन जाएगा। बांग्लादेश, जो भारत के साथ 4,096 किमी लंबी सीमा साझा करता है, यदि तालिबानी रास्ते पर बढ़ता है, तो इससे सीमा पार आतंकवाद, शरणार्थी संकट और सांप्रदायिक तनाव जैसी समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं।




जमात-चर मोंई जैसे संगठनों का राजनीतिक रूप से सक्रिय होना और तालिबानी शासन का समर्थन करना एक गंभीर चिंता का विषय है। यह केवल बांग्लादेश के लिए नहीं, बल्कि समूचे दक्षिण एशिया की स्थिरता के लिए एक चुनौती है। बांग्लादेश की जनता और वहां की लोकतांत्रिक संस्थाओं को इस वैचारिक आक्रमण के प्रति सचेत रहना होगा और धर्मनिरपेक्षता की उस नींव की रक्षा करनी होगी जिस पर उनके देश का निर्माण हुआ था।