बिहार चुनाव 2025: बेगूसराय सीट पर जातीय समीकरण और मुद्दों का विश्लेषण

बिहार चुनाव 2025: बेगूसराय विधानसभा सीट का महत्व
बिहार चुनाव 2025: बेगूसराय विधानसभा सीट सामान्य वर्ग के लिए आरक्षित है और यह जिले की प्रमुख शहरी और अर्ध-शहरी सीटों में से एक मानी जाती है। यह क्षेत्र न केवल औद्योगिक और वाणिज्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है, बल्कि राजनीतिक रूप से भी अत्यधिक संवेदनशील है। यह क्षेत्र कभी वामपंथी आंदोलनों का गढ़ रहा है और इसे 'मिनी मॉस्को' के नाम से भी जाना जाता था। वर्तमान में, यह सीट भारतीय जनता पार्टी (BJP) का एक मजबूत गढ़ बन चुकी है।
चुनावी मुद्दे
बेगूसराय में इस बार चुनावी मुद्दों में ट्रैफिक जाम, जल निकासी, कचरा प्रबंधन और अपराध नियंत्रण प्रमुख समस्याएं हैं। बरौनी औद्योगिक क्षेत्र के निकट होने के बावजूद, स्थानीय युवाओं के लिए रोजगार के अवसर सीमित हैं, जिससे पलायन की समस्या बनी हुई है। शहरी क्षेत्र होने के कारण संपत्ति अपराधों में भी वृद्धि देखी गई है, जिसके चलते बेहतर पुलिसिंग की मांग उठ रही है।
जातीय समीकरण
30 सितंबर 2025 को जारी चुनाव आयोग की अंतिम मतदाता सूची के अनुसार, बेगूसराय विधानसभा क्षेत्र में कुल मतदाता संख्या लगभग 3.10 लाख है, जिसमें 1.65 लाख पुरुष और 1.45 लाख महिलाएं शामिल हैं। वर्ष 2020 की तुलना में मतदाताओं की संख्या में लगभग 10,000 की वृद्धि हुई है। मतदान प्रतिशत 52 से 55% के बीच रहने की संभावना है।
जातीय समीकरणों के अनुसार, भूमिहार और वैश्य समुदाय का प्रभावी वर्चस्व है, जो परंपरागत रूप से बीजेपी के समर्थन में रहा है। यादव, मुस्लिम और अति पिछड़ा वर्ग (EBC) भी निर्णायक भूमिका निभाते हैं और ये वोटर विपक्षी दलों के लिए महत्वपूर्ण हो सकते हैं।
पिछले चुनावी नतीजों की झलक
बेगूसराय विधानसभा सीट पर 2010 से बीजेपी का कब्जा है। 2020 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी के कुंदन कुमार ने कांग्रेस की अमिता भूषण को 4,500 से अधिक वोटों से हराया था। 2015 में भी बीजेपी के अमरेंद्र कुमार ने कांग्रेस की उम्मीदवार को हराया था। 2024 के लोकसभा चुनाव में भी बीजेपी प्रत्याशी ने विपक्ष के साझा उम्मीदवार पर 28,000 वोटों की भारी बढ़त दर्ज की थी।
2025 का सियासी परिदृश्य
इस बार भी बीजेपी अपने मजबूत जातीय आधार और शहरी विकास के मुद्दों पर भरोसा कर रही है। वहीं, विपक्ष के लिए यह सीट चुनौतीपूर्ण बनी हुई है। यदि विपक्ष को इस सीट पर सफलता मिलती है, तो उन्हें वामपंथी वोटरों के साथ-साथ शहरी मतदाताओं के बीच भी अपनी पकड़ मजबूत करनी होगी। प्रशांत किशोर की 'जनसुराज' मुहिम ने शिक्षित और युवा वर्ग में कुछ असर जरूर डाला है, लेकिन इसका चुनावी नतीजों पर कितना प्रभाव पड़ेगा, यह देखना बाकी है।