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गुरु तेग बहादुर का बलिदान: धर्म की रक्षा में अद्वितीय साहस

गुरु तेग बहादुर का बलिदान 17वीं सदी के भारत में धर्म और मानवता की रक्षा के लिए एक अद्वितीय उदाहरण है। जब मुगल बादशाह औरंगजेब का अत्याचार चरम पर था, तब गुरु ने साहसिक निर्णय लिया और अपने जीवन का बलिदान दिया। जानें कैसे उन्होंने कश्मीरी पंडितों की पुकार का उत्तर दिया और अपने सिद्धांतों के लिए खड़े रहे। यह कहानी न केवल सिख धर्म के लिए, बल्कि मानवता के लिए भी प्रेरणादायक है।
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गुरु तेग बहादुर का बलिदान: धर्म की रक्षा में अद्वितीय साहस

गुरु तेग बहादुर का बलिदान

गुरु तेग बहादुर का बलिदान: 17वीं सदी का भारत एक कठिन दौर से गुजर रहा था, जब मुगल सम्राट औरंगजेब का अत्याचार पूरे देश पर छाया हुआ था। कश्मीर से कन्याकुमारी तक हिंदुओं के लिए जबरन धर्मांतरण का खतरा मंडरा रहा था। कश्मीरी पंडितों पर अत्याचार अपने चरम पर था, मंदिरों को तोड़ा जा रहा था, जनेऊ कटवाने और माथे पर तिलक लगाने पर मौत की सजा दी जा रही थी।


अंधकार के बीच एक आवाज— गुरु तेग बहादुर का बलिदान

“सिर दीजै पर धर्म न दीजै।”
यह आवाज सिखों के नवम गुरु, श्री गुरु तेग बहादुर जी की थी।


गुरु तेग बहादुर: जन्म और गुरु बनने की यात्रा

गुरु तेग बहादुर का जन्म 1 अप्रैल 1621 को अमृतसर में हुआ। उनका बचपन का नाम त्यागमल था और वे गुरु हरगोबिंद जी के सबसे छोटे पुत्र थे। बचपन से ही उनमें अद्वितीय साहस और आत्मविश्वास था। कहा जाता है कि 13 साल की उम्र में उन्होंने मुगल सेना के खिलाफ युद्ध लड़ा, जिसमें उनके अद्भुत पराक्रम का प्रदर्शन हुआ।


मार्च 1665 में गुरु हरकृष्ण जी के निधन के बाद उन्हें सिखों का नौवां गुरु बनाया गया। गुरु बनने के बाद उन्होंने अध्यात्म, सेवा और मानवता के लिए कई कार्य किए।


कश्मीरी पंडितों की पुकार और गुरु का निर्णय

1675 की गर्मियों में कश्मीर के पंडितों का एक समूह गुरु तेग बहादुर से मिलने आनंदपुर साहिब आया। उनके मुखिया पंडित किरपा राम ने रोते हुए औरंगजेब के अत्याचारों की कहानी सुनाई—
“महाराज, या इस्लाम कबूल करो या मर जाओ… यही फरमान है।”


गुरु का साहसिक निर्णय

उसी समय उनके 9 साल के पुत्र गोबिंद राय (भविष्य के गुरु गोबिंद सिंह) ने पूछा—“पिता जी, इस संकट को कौन टाल सकता है?”
गुरु जी ने उत्तर दिया— “कोई ऐसा महान पुरुष जो अपना सिर दे सके।”
गोबिंद राय ने कहा— “आपसे महान कौन?”
यहीं से इतिहास की दिशा बदल गई।


गुरु का संदेश और औरंगजेब की प्रतिक्रिया

गुरु ने कश्मीरी पंडितों से कहा—“औरंगजेब से जाकर कहो कि अगर गुरु तेग बहादुर इस्लाम कबूल कर लें, तो सभी कर लेंगे।”
औरंगजेब ने गुरु की गिरफ्तारी का आदेश दिया।


धर्म के लिए बलिदान

11 नवंबर 1675 को गुरु तेग बहादुर को औरंगजेब के सामने पेश किया गया। उसने पूछा—“जनेऊ और तिलक वालों के लिए अपनी जान क्यों दे रहे हो?”
गुरु का उत्तर था—“हिंदुओं ने शरण ली है। अगर मुसलमान भी शरण लें, तो उनके लिए भी प्राण दे दूंगा।”


औरंगजेब ने तीन विकल्प दिए—इस्लाम कबूल करो, चमत्कार दिखाओ या मर जाओ। गुरु का शांत उत्तर था—“हम धर्म नहीं छोड़ेंगे। चमत्कार नहीं दिखाएंगे। जो करना है करो।”
इसके बाद उनके साथियों पर भयानक अत्याचार हुए।


गुरु का बलिदान और उसकी विरासत

गुरु तेग बहादुर का बलिदान केवल हिंदू या सिख धर्म के लिए नहीं था, बल्कि यह मानवता, स्वतंत्रता और धर्म की रक्षा के लिए था। उन्होंने सिखा दिया कि जहाँ-जहाँ अत्याचार होगा, वहाँ कोई-न-कोई तेग बहादुर खड़ा होगा।


“वाहेगुरु जी का खालसा, वाहेगुरु जी की फतह।”