पितृपक्ष: पूर्वजों की याद में श्रद्धा और सेवा का समय
पितृपक्ष का महत्व और तिथियां
हिंदू पंचांग के अनुसार, भाद्रपद मास की पूर्णिमा के बाद अश्विन मास की कृष्ण पक्ष प्रतिपदा से पितृपक्ष की शुरुआत होती है। इस दौरान, मान्यता है कि पूर्वज अपने वंशजों से आशीर्वाद लेने के लिए पृथ्वी पर आते हैं। इस समय उनके तृप्त होने से परिवार में समृद्धि और शांति का संचार होता है।लोग इस अवसर पर सूर्योदय से पहले स्नान कर तिल, कुश, अक्षत, पुष्प और जल अर्पित करते हैं। विद्वानों का मानना है कि विधिपूर्वक किया गया जल तर्पण न केवल पूर्वजों को संतोष प्रदान करता है, बल्कि उनके आशीर्वाद से मोक्ष और सौभाग्य भी मिलता है।
पितृपक्ष के दौरान दान और सेवा का विशेष महत्व है। शास्त्रों में पंचबली प्रथा का उल्लेख है, जिसमें देवताओं, गाय, पीपल, कुत्तों और कौवों को अन्न और जल अर्पित करना शुभ माना जाता है। इसके साथ ही, चींटियों और जलचर जीवों को भोजन कराने से पुण्य की वृद्धि होती है।
श्राद्धकर्म के अंत में प्रार्थना की जाती है कि परिवार में सदैव समृद्धि बनी रहे और दान देने की क्षमता में कमी न आए। आमंत्रित ब्राह्मणों को आदरपूर्वक दक्षिणा देकर विदा करना और श्राद्ध के बाद ब्रह्मचर्य का पालन करना भी परंपरा का हिस्सा है।
पितृपक्ष की तिथियां इस प्रकार हैं:
- 8 सितंबर, सोमवार: प्रतिपदा श्राद्ध
- 9 सितंबर, मंगलवार: द्वितीया श्राद्ध
- 10 सितंबर, बुधवार: तृतीया और चतुर्थी श्राद्ध
- 11 सितंबर, गुरुवार: पंचमी श्राद्ध
- 12 सितंबर, शुक्रवार: षष्ठी श्राद्ध
- 13 सितंबर, शनिवार: सप्तमी श्राद्ध
- 14 सितंबर, रविवार: अष्टमी श्राद्ध
- 15 सितंबर, सोमवार: नवमी श्राद्ध
- 16 सितंबर, मंगलवार: दशमी श्राद्ध
- 17 सितंबर, बुधवार: एकादशी श्राद्ध
- 18 सितंबर, गुरुवार: द्वादशी श्राद्ध
- 19 सितंबर, शुक्रवार: त्रयोदशी श्राद्ध
- 20 सितंबर, शनिवार: चतुर्दशी श्राद्ध
- 21 सितंबर, रविवार: सर्वपितृ अमावस्या
पितृपक्ष केवल एक धार्मिक परंपरा नहीं है, बल्कि यह अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और स्मरण का अवसर भी है। यह समय परिवार को एकजुट करता है और हमें याद दिलाता है कि हमारी जड़ें हमारे पितरों से जुड़ी हैं।