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महादेव की कथा: श्रीराम जन्म का रहस्य और जय-विजय का अहंकार

महादेव की कथा में श्रीराम के जन्म के पीछे के रहस्यों और जय-विजय के अहंकार की कहानी का वर्णन किया गया है। जानें कैसे अहंकार ने इन द्वारपालों को राक्षस बना दिया। यह कथा न केवल धार्मिक है, बल्कि जीवन के गहरे सबक भी सिखाती है।
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महादेव की कथा: श्रीराम जन्म का रहस्य और जय-विजय का अहंकार

महादेव की कथा का आरंभ

महादेव के श्रीमुख से श्रीराम के जन्म की कथा सुनना एक अद्भुत अनुभव है। जगदीश्वर शिव बताते हैं कि श्रीराम के अवतार के पीछे कई कारण हैं। ये कारण इतने अद्भुत और दिव्य हैं कि उनका वर्णन करना कठिन है—




"राम जन्म के हेतु अनेका। परम विचित्र एक ते एका।।"




यह सत्य है कि ईश्वर के सभी अवतारों की कथा को शब्दों में बांधना संभव नहीं है। यहां तक कि भगवान शंकर भी श्रीराम की कथा का संपूर्ण रूप से वर्णन करने में असमर्थ महसूस करते हैं। इसका कारण यह है कि किसी एक कारण को अवतार का एकमात्र कारण मानना उचित नहीं है, क्योंकि ईश्वरीय लीला के रहस्य गहरे होते हैं। इसलिए, भगवान शंकर ने कुछ प्रमुख जन्मों की कथा कहने का निर्णय लिया, जिसके लिए उन्होंने भगवती भवानी से अनुमति मांगी—


जय और विजय का अहंकार

जय और विजय का अहंकार और शाप




भगवान शंकर आगे बताते हैं कि श्री हरि (भगवान विष्णु) के प्रिय द्वारपाल जय और विजय हैं। ये दोनों संसार में प्रसिद्ध हैं—




"द्वारपाल हरि के प्रिय दो। जय अरु बिजय जान सब कोऊ।।"




लेकिन इन दोनों में अहंकार आ गया। वे गर्व करने लगे कि वे सामान्य द्वारपाल नहीं हैं, बल्कि भगवान विष्णु के द्वार पर नियुक्त हैं। इस गर्व में, उन्होंने यह सोच लिया कि वे किसी को भी भगवान विष्णु से मिलने से रोक सकते हैं, चाहे वह कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो।




यह उनका अहंकार था जिसने उन्हें यह सोचने पर मजबूर किया कि वे भगवान विष्णु के द्वारपाल होते हुए भी किसी को रोक सकते हैं। वे भूल गए थे कि भगवान और भक्त का संबंध अग्नि और उसके ताप के समान होता है। क्या कोई अग्नि से उसके ताप को अलग कर सकता है? भक्त भी अपने भगवान से इसी प्रकार एकाकार होते हैं।




एक दिन, जब जय और विजय ने देखा कि सनकादि ऋषि वैकुण्ठ द्वार की ओर आ रहे हैं, तो उन्हें यह उम्मीद नहीं थी कि ऋषि उनसे अनुमति लेकर भीतर जाएंगे। लेकिन जब ऋषियों ने बिना पूछे ही प्रवेश करना शुरू किया, तो उनके अहंकार को गहरी ठेस लगी।




सनकादि ऋषियों का कोई ऐसा भाव नहीं था कि वे किसी को नीचा दिखाएं। वे प्रभु के प्रेम में इतने मग्न थे कि उन्हें यह भान ही नहीं रहा कि उनके और भगवान के बीच कोई द्वारपाल भी है।




जय और विजय ने ऋषियों को अपशब्द कहकर उनका अपमान किया। लेकिन ऋषियों ने शांत रहकर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। इससे द्वारपाल और भी भड़क गए और उन्होंने ऋषियों का अपमान करने की सभी सीमाएं पार कर दीं।




तब ऋषियों ने देखा कि इन द्वारपालों का आचरण देवता जैसा नहीं है, बल्कि राक्षसी है। इसलिए, ऋषियों ने उन्हें श्राप दिया कि "जाओ, तुम दोनों राक्षस बन जाओ!" इस प्रकार, ऋषियों के श्राप से वे अगले जन्म में हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष के रूप में राक्षस बनकर जन्मे। (क्रमशः)




- सुखी भारती