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माता पार्वती का तप और मैना का संकल्प

इस लेख में माता पार्वती के भगवान शिव को पाने के लिए किए गए कठिन तप और उनकी माता मैना के संकल्प का वर्णन किया गया है। मैना ने अपनी पुत्री का विवाह एक बावले से न होने देने की कसम खाई है। जानें कैसे यह कहानी आगे बढ़ती है और देवी पार्वती अपनी माता को समझाने का प्रयास करती हैं।
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माता पार्वती का तप और मैना का संकल्प

भगवान शिव के लिए माता पार्वती का तप

भगवान शिव को वर के रूप में पाने के लिए माता पार्वती ने कठिन तप किया। उनके तप के प्रभाव से स्वयं नीलकंठ भगवान उनके पास आए, लेकिन हिमालय में पहुँचकर भी वे देवी पार्वती से नहीं मिल पाए। इसका कारण यह था कि देवी पार्वती की माता मैना उनके रास्ते में रुकावट बन गई। मैना ने देवी पार्वती को अपनी गोद में बिठाकर ऊँचे स्वर में विलाप किया-




कस कीन्ह बरु बौराह बिधि जेहिं तुम्हहि सुंदरता दई।


जो फलु चहिअ सुरतरुहिं सो बरबस बबूरहिं लागई॥


तुम्ह सहित गिरि तें गिरौं पावक जरौं जलनिधि महुँ परौं।


घरु जाउ अपजसु होउ जग जीवत बिबाहु न हौं करौं॥




मैना ने कहा कि जिस विधाता ने तुम्हें इतनी सुंदरता दी, उसने तुम्हारे भाग्य में बावला वर कैसे लिखा? जो फल कल्पवृक्ष में लगना चाहिए था, वह बबूल में लग रहा है। मैं तुम्हें लेकर पहाड़ से गिर जाऊँगी, आग में जल जाऊँगी या समुद्र में कूद जाऊँगी। चाहे घर उजड़ जाए और मेरी बदनामी हो, पर मैं तुम्हारा विवाह उस बावले से नहीं होने दूँगी।


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मैना बड़े दावे कर रही है। वह मानो भीष्म प्रतिज्ञा कर रही हो कि दुनिया चाहे इधर से उधर हो जाए, पर वह अपनी पुत्री पार्वती का विवाह उस बावले के साथ नहीं होने देगी।




पाठक ध्यान दें कि देवी पार्वती को उनकी माता मैना मोहवश पहचान नहीं पा रही हैं। मैना को यह नहीं पता कि जिनको वह अपनी पुत्री समझ रही हैं, वे वास्तव में संपूर्ण संसार की जननी हैं। सही में, देवी पार्वती को मैना की गोद में नहीं, बल्कि मैना को देवी पार्वती की गोद में होना चाहिए।




जीव के दुर्भाग्य की यही विडंबना है। वह माया के बंधन में फंसा हुआ है और ज्ञान की कमी के कारण सही निर्णय नहीं ले पाता। उसे बस इतना पता होना चाहिए कि ईश्वर उसके द्वार पर खड़े हैं। फिर वह पूरे जोश में उनके विरोध में खड़ा हो जाता है। वह अपनी त्रुटियों को नहीं देखता, बल्कि विधाता में दोष निकालने लगता है।




समझ लीजिए कि जीव की अज्ञानता और पुण्य के अभाव के कारण वह ईश्वर के खिलाफ खड़ा हो जाता है। मैना तो उस जीव का केवल प्रतिबिंब है। जब मैना विधाता को खरी-खोटी सुना देती है, तो अपने क्रोध का ठीकरा मुनि नारद पर फोड़ देती है-




नारद कर मैं काह बिगारा। भवनु मोर जिन्ह बसत उजारा॥


अस उपदेसु उमहि जिन्ह दीन्हा। बौरे बरहि लागि तपु कीन्हा॥




मैना कहती है कि मैंने नारद का क्या बिगाड़ा था, जिन्होंने मेरा घर उजाड़ दिया। नारद जी ने मेरी बेटी को ऐसा उपदेश दिया कि उसने बावले वर के लिए तप किया। नारद जी का क्या कहना, वे तो सब कुछ छोड़कर उदासीन हैं। यही कारण है कि वे दूसरों का घर उजाड़ने वाले हैं।




मैना की स्थिति भयंकर है। वह उसी संत की निंदा कर रही है, जिनका उसने अपने घर पर सम्मान किया था। भक्ति मार्ग के दो स्तंभ हैं, संत और ईश्वर। लेकिन मैना की सोच इतनी जड़ है कि वह दोनों से घृणा कर रही है।




मैना भक्ति के इन दोनों आधारों से रहित होकर खड़ी है। भगवान की आरती तो उसने की ही नहीं, बल्कि आरती का थाल भी गिरा दिया। अब वह कह रही है कि संत नारद भी ठीक नहीं हैं। उन्होंने मेरी भोली-भाली कन्या का दिमाग खराब कर दिया।




मैना को इस प्रकार विलाप करते देख, देवी पार्वती ने अपनी माता को समझाने का निर्णय लिया। देवी पार्वती मैना को क्या उपदेश देती हैं, यह जानेंगे अगले अंक में---(क्रमशः---)




- सुखी भारती