मुहर्रम 2025: इस्लामिक नववर्ष का महत्व और आशूरा का दिन

मुहर्रम का महत्व
Muharram 2025: इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना मुहर्रम है, जो चार पवित्र महीनों में से एक माना जाता है। यह केवल नए साल की शुरुआत नहीं है, बल्कि यह शोक और आत्म-चिंतन का समय भी है। इस दौरान मुसलमान इबादत, रोजा और अल्लाह की याद में समय बिताते हैं, युद्ध और हिंसा से दूर रहते हैं।
आशूरा का दिन
मुहर्रम का सबसे महत्वपूर्ण दिन आशूरा है, जो इस महीने की दसवीं तारीख को मनाया जाता है। यह दिन करबला की उस ऐतिहासिक घटना की याद दिलाता है, जिसमें हजरत इमाम हुसैन ने अन्याय के खिलाफ लड़ते हुए शहादत दी थी। यह बलिदान, सच्चाई और इंसाफ के लिए खड़े होने का प्रतीक है।
मुहर्रम 2025 की तिथि
इस्लामी चंद्र कैलेंडर के अनुसार, मुहर्रम की शुरुआत चांद देखने पर निर्भर करती है। 2025 में मुहर्रम की शुरुआत 27 जून से होने की संभावना है। आशूरा, यानी इस महीने की दसवीं तारीख, रविवार, 6 जुलाई 2025 को पड़ने की उम्मीद है। हालांकि, अंतिम तिथि चांद की पुष्टि के बाद तय होगी।
मुहर्रम: त्योहार या महीना?
कई गैर-मुस्लिमों के बीच यह गलतफहमी है कि मुहर्रम एक त्योहार है। लेकिन यह इस्लामी कैलेंडर का पहला महीना है। आशूरा केवल दसवीं तारीख को मनाया जाता है, जो खुशी का नहीं, बल्कि शोक और बलिदान की याद का दिन है। इस दिन करबला की लड़ाई में इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की शहादत को याद किया जाता है।
मुहर्रम का उद्देश्य
मुहर्रम, बकरीद (ईद-उल-अजहा) के लगभग 20 दिन बाद आता है। इसे सच्चाई, ईमानदारी और कुर्बानी का प्रतीक माना जाता है। इस दौरान मुस्लिम समुदाय मातमी जुलूस, ताजिए और नोहा-ख्वानी जैसे रिवाज निभाते हैं। इस दिन का उद्देश्य इमाम हुसैन की कुर्बानी को याद करना और उनकी तरह सच्चाई और इंसाफ के लिए खड़े रहने की प्रेरणा लेना है। यह कोई उत्सव नहीं, बल्कि गम और याद का दिन होता है।
करबला की लड़ाई: इमाम हुसैन की अमर कुर्बानी
करबला की जंग में इमाम हुसैन ने अपने परिवार और साथियों के साथ अपने प्राणों की आहुति दी थी। उन्होंने अत्याचार और अन्याय के खिलाफ खड़े होकर दिखाया कि एक सच्चे ईमानदार को किसी भी कीमत पर झुकना नहीं चाहिए। यह घटना इस्लामी इतिहास की सबसे दर्दनाक और प्रेरणादायक घटनाओं में से एक मानी जाती है।
मुहर्रम में प्रथाएँ
मुहर्रम के दौरान लोग काले कपड़े पहनते हैं और शोक प्रकट करते हैं। ताजिए निकाले जाते हैं, जो इमाम हुसैन की याद में होते हैं। नोहा और मर्सिया पढ़े जाते हैं, जिनमें करबला की घटना का वर्णन होता है। आशूरा के दिन रोजा रखा जाता है, और कुछ समुदायों में लोग इमाम हुसैन की प्यास की याद में पानी नहीं पीते।