शिव का वैदिक स्वरूप: कल्याणकारी परमात्मा की पहचान

शिव का अर्थ और वैदिक दृष्टिकोण
शिव का शाब्दिक अर्थ है 'कल्याणकारी', और ईश्वर ही सम्पूर्ण सृष्टि का अंतिम कल्याणकर्ता है। यजुर्वेद (16/41) में प्रतिदिन की संध्योपासना में एक महत्वपूर्ण मंत्र का उल्लेख है: 'नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च।'
वैदिक परंपरा के अनुसार, परमात्मा के अनेक गुण हैं, जिनके कारण उनके अनगिनत नाम हैं। इनमें से एक नाम 'शिव' भी है। वैदिक मान्यता में, शिव निराकार, अजन्मा, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान और सृष्टि के रचयिता माने जाते हैं। हालांकि, वर्तमान में उन्हें एक सीमित रूप में पूजा जाता है, जैसे कैलाश पर निवास करने वाले योगी के रूप में।
यजुर्वेद (40/8) में कहा गया है कि ईश्वर सर्वव्यापक है। वह केवल किसी एक स्थान या मूर्ति में नहीं, बल्कि सम्पूर्ण जगत में व्याप्त है। तैत्तिरीयोपनिषद् में भी कहा गया है कि जिसने सृष्टि बनाई, वही उसमें व्याप्त है।
वैदिक वाङ्मय में केवल निराकार, सर्वशक्तिमान परमेश्वर की पूजा की जाती है। ऋग्वेद (1/81/5) में कहा गया है कि ईश्वर के समान कोई नहीं है। यही कारण है कि वेदों में निर्देश है कि इस एक परमेश्वर को छोड़कर किसी अन्य की उपासना नहीं करनी चाहिए।
शिव की उपासना और वैदिक ज्ञान
यजुर्वेद (40/8) में निराकार परमेश्वर को सर्वज्ञ, सर्वत्र व्यापक, और पाप-पुण्य के बंधनों से परे बताया गया है। चारों वेदों का ज्ञान इसी परमेश्वर से उत्पन्न होता है। यजुर्वेद (7/4) में अष्टांग योग का भी उल्लेख है, जो इस परमेश्वर से संबंधित है।
ऋषियों की परंपरा में परमेश्वर को योग का उपदेशक माना गया है। यह योग परंपरा वेदों से निकलकर गुरुपरंपरा के माध्यम से पीढ़ी दर पीढ़ी चली।
महाभारत काल तक यह वैदिक व्यवस्था सुव्यवस्थित थी, लेकिन युद्ध के बाद वेदविद्या का महत्व कम हो गया। लोगों ने अपनी सुविधाओं के अनुसार पूजा-पद्धतियाँ विकसित कीं, जिससे अनेक पंथ और मज़हब उभरे।
आज अधिकांश लोग शिव को कैलाशवासी, त्रिनेत्रधारी, और पार्वतीपति के रूप में जानते हैं, जबकि वेदों में शिव निराकार और सर्वव्यापक परमात्मा हैं।
शिव का वैदिक स्वरूप और वर्तमान आवश्यकता
शिव का अर्थ है कल्याणकारी, और ईश्वर ही सम्पूर्ण सृष्टि का अंतिम कल्याणकर्ता है। यजुर्वेद (16/41) में एक प्रसिद्ध मंत्र है: 'नमः शम्भवाय च मयोभवाय च नमः शंकराय च मयस्कराय च नमः शिवाय च शिवतराय च।'
यहाँ शम्भव, मयोभव, शंकर, मयस्कर, शिव और शिवतर सभी एक ही परमात्मा के गुण हैं, जो उसे विभिन्न रूपों में कल्याणकारी दर्शाते हैं।
यजुर्वेद (3/60) में भी उस परमात्मा की स्तुति की गई है, जो सबका पोषक है और मृत्यु से मुक्ति प्रदान करता है।
वेदों और उपनिषदों में शिव को निराकार ब्रह्म के रूप में स्वीकार किया गया है। कैवल्योपनिषद (1/8) में शिव को सभी देवताओं के मूलस्वरूप के रूप में चित्रित किया गया है।
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने स्पष्ट किया है कि रुद्र दुष्टों को दंड देकर रुलाता है, शंकर कल्याण करता है, और शिव स्वयं कल्याणस्वरूप है।
समापन: शिव की ओर पुनरागमन
आज की आवश्यकता है कि हम शिव को उनके वैदिक स्वरूप में समझें। उन्हें केवल एक पारंपरिक देवता के रूप में नहीं, बल्कि निराकार ब्रह्म के रूप में जानें। वेदों का शिव ज्ञान का प्रकाश, धर्म की आत्मा, भय का विनाशक, और मोक्ष का प्रदाता है।
वही शिव है, जिसे जानकर शांति मिलती है और जिसके नमन से कल्याण सुनिश्चित होता है।