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श्री रामचरितमानस: शिवजी और रावण की कथा

इस लेख में श्री रामचरितमानस की अद्भुत कथा का वर्णन किया गया है, जिसमें शिवजी की चिंता, रावण का छल और सीता का अपहरण शामिल है। जानें कैसे शिवजी ने रामजी को देखा और सती का संदेह कैसे उत्पन्न हुआ। यह कथा न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह मानव भावनाओं और रिश्तों की गहराई को भी उजागर करती है।
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श्री रामचरितमानस: शिवजी और रावण की कथा

शिवजी का दर्शन की खोज

श्री रामचन्द्राय नम:




पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं


मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।


श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये


ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥




हृदयँ बिचारत जात हर केहि बिधि दरसनु होइ।


गुप्त रूप अवतरेउ प्रभु गएँ जान सबु कोइ॥




शिवजी अपने हृदय में यह विचार कर रहे थे कि भगवान के दर्शन कैसे होंगे। प्रभु ने गुप्त रूप में अवतार लिया है, जिससे सब लोग जान न सकें॥


सती का संदेह

सोरठा 


संकर उर अति छोभु सती न जानहिं मरमु सोइ।


तुलसी दरसन लोभु मन डरु लोचन लालची॥ 




शिवजी के मन में इस बात को लेकर बड़ी हलचल थी, लेकिन सतीजी इस रहस्य को नहीं समझ पाईं। तुलसीदासजी कहते हैं कि शिवजी के मन में भेद खुलने का डर था, लेकिन दर्शन के लोभ ने उनके नेत्रों को ललचाया॥ 


रावण की चाल

रावन मरन मनुज कर जाचा। प्रभु बिधि बचनु कीन्ह चह साचा॥


जौं नहिं जाउँ रहइ पछितावा। करत बिचारु न बनत बनावा॥




रावण ने ब्रह्माजी से मनुष्य के हाथ से अपनी मृत्यु की प्रार्थना की थी। ब्रह्माजी के वचनों को प्रभु सत्य करना चाहते थे। शिवजी सोचते थे कि यदि मैं नहीं जाता, तो पछतावा होगा। इस प्रकार शिवजी विचार करते रहे, लेकिन कोई उपाय सही नहीं बैठता था॥ 


महादेव की चिंता

ऐहि बिधि भए सोचबस ईसा। तेही समय जाइ दससीसा॥


लीन्ह नीच मारीचहि संगा। भयउ तुरउ सोइ कपट कुरंगा॥




इस प्रकार महादेवजी चिंता में डूब गए। उसी समय रावण ने मारीच को साथ लिया और वह मारीच तुरंत कपट मृग बन गया॥ 


सीता का अपहरण

करि छलु मूढ़ हरी बैदेही। प्रभु प्रभाउ तस बिदित न तेही॥


मृग बधि बंधु सहित हरि आए। आश्रमु देखि नयन जल छाए॥




मूर्ख रावण ने छल से सीताजी को हर लिया। उसे श्री रामचंद्रजी के असली प्रभाव का कोई ज्ञान नहीं था। मृग को मारकर भाई लक्ष्मण के साथ श्री हरि आश्रम में आए और वहाँ सीताजी को न पाकर उनके नेत्रों में आँसू भर आए॥


श्री रघुनाथजी का विरह

बिरह बिकल नर इव रघुराई। खोजत बिपिन फिरत दोउ भाई॥


कबहूँ जोग बियोग न जाकें। देखा प्रगट बिरह दुखु ताकें॥


 


श्री रघुनाथजी मनुष्यों की तरह विरह से व्याकुल हैं और दोनों भाई सीता को खोजते हुए वन में घूम रहे हैं। जिनका कभी कोई संयोग-वियोग नहीं होता, उनमें भी प्रत्यक्ष विरह का दुःख देखा गया॥


शिवजी का आनंद

अति बिचित्र रघुपति चरित जानहिं परम सुजान।


जे मतिमंद बिमोह बस हृदयँ धरहिं कछु आन॥




श्री रघुनाथजी का चरित्र अत्यंत अद्भुत है, जिसे केवल ज्ञानीजन ही समझते हैं। जो मंदबुद्धि हैं, वे मोह के वश होकर कुछ और ही समझ लेते हैं॥


सती का संदेह

संभु समय तेहि रामहि देखा। उपजा हियँ अति हरषु बिसेषा ॥


भरि लोचन छबिसिंधु निहारी। कुसमय जानि न कीन्हि चिन्हारी॥1॥




श्री शिवजी ने उसी समय श्री रामजी को देखा और उनके हृदय में अत्यधिक आनंद उत्पन्न हुआ। उन्होंने श्री रामचंद्रजी को नेत्र भरकर देखा, लेकिन अवसर ठीक न जानकर परिचय नहीं किया॥


सती का संदेह और शिवजी का उत्तर

जय सच्चिदानंद जग पावन। अस कहि चलेउ मनोज नसावन॥


चले जात सिव सती समेता। पुनि पुनि पुलकत कृपानिकेता॥




जगत को पवित्र करने वाले सच्चिदानंद की जय हो, इस प्रकार कहकर कामदेव का नाश करने वाले श्री शिवजी आनंदित होकर सतीजी के साथ चले गए॥


सती का संदेह

सतीं सो दसा संभु कै देखी। उर उपजा संदेहु बिसेषी॥


संकरु जगतबंद्य जगदीसा। सुर नर मुनि सब नावत सीसा॥




सतीजी ने शिवजी की वह दशा देखी तो उनके मन में बड़ा संदेह उत्पन्न हो गया। वे मन ही मन कहने लगीं कि शंकरजी की सारा जगत वंदना करता है, वे जगत के ईश्वर हैं, देवता, मनुष्य, मुनि सब उनके प्रति सिर नवाते हैं॥ 


शिवजी का उत्तर

तिन्ह नृपसुतहि कीन्ह परनामा। कहि सच्चिदानंद परधामा॥


भए मगन छबि तासु बिलोकी। अजहुँ प्रीति उर रहति न रोकी॥




उन्होंने एक राजपुत्र को सच्चिदानंद परधाम कहकर प्रणाम किया और उसकी शोभा देखकर वे इतने प्रेममग्न हो गए कि अब तक उनके हृदय में प्रीति रोकने से भी नहीं रुकती॥


ब्रह्म का स्वरूप

ब्रह्म जो ब्यापक बिरज अज अकल अनीह अभेद।


सो कि देह धरि होइ नर जाहि न जानत बेद॥




जो ब्रह्म सर्वव्यापक, मायारहित, अजन्मा, अगोचर, इच्छारहित और भेदरहित है और जिसे वेद भी नहीं जानते, क्या वह देह धारण करके मनुष्य हो सकता है?॥


सती का संदेह

संभुगिरा पुनि मृषा न होई। सिव सर्बग्य जान सबु कोई॥


अस संसय मन भयउ अपारा। होइ न हृदयँ प्रबोध प्रचारा॥




फिर शिवजी के वचन भी झूठे नहीं हो सकते। सब कोई जानते हैं कि शिवजी सर्वज्ञ हैं। सती के मन में इस प्रकार का अपार संदेह उठ खड़ा हुआ, किसी तरह भी उनके हृदय में ज्ञान का प्रादुर्भाव नहीं होता था॥


भवानीजी का संदेश

जद्यपि प्रगट न कहेउ भवानी। हर अंतरजामी सब जानी॥


सुनहि सती तव नारि सुभाऊ। संसय अस न धरिअ उर काऊ॥




यद्यपि भवानीजी ने प्रकट कुछ नहीं कहा, पर अन्तर्यामी शिवजी सब जान गए और उन्होने कहा- हे सती ! तुम्हें ऐसा संदेह मन में कभी नहीं रखना चाहिए॥


रामजी का अवतार

जासु कथा कुंभज रिषि गाई। भगति जासु मैं मुनिहि सुनाई॥


सोइ मम इष्टदेव रघुबीरा। सेवत जाहि सदा मुनि धीरा॥




जिनकी कथा का अगस्त्य ऋषि ने गान किया और जिनकी भक्ति मैंने मुनि को सुनाई, ये वही मेरे इष्टदेव श्री रघुवीरजी हैं, जिनकी सेवा ज्ञानी मुनि सदा किया करते हैं॥


ज्ञानी मुनियों का ध्यान

मुनि धीर जोगी सिद्ध संतत बिमल मन जेहि ध्यावहीं।


कहि नेति निगम पुरान आगम जासु कीरति गावहीं॥


सोइ रामु ब्यापक ब्रह्म भुवन निकाय पति माया धनी।


अवतरेउ अपने भगत हित निजतंत्र नित रघुकुलमनी॥




ज्ञानी मुनि, योगी और सिद्ध निरंतर निर्मल चित्त से जिनका ध्यान करते हैं तथा वेद, पुराण और शास्त्र ‘नेति नेति कहकर जिनकी कीर्ति गाते हैं, उन्हीं सर्वव्यापक, समस्त ब्रह्मांडों के स्वामी, मायापति, नित्य परम स्वतंत्र, ब्रह्मा रूप भगवान्‌ श्री रामजी ने अपने भक्तों के हित के लिए रघुकुल में अवतार लिया है। 


अगले प्रसंग की प्रतीक्षा

 शेष अगले प्रसंग में -------------




राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।


सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥




- आरएन तिवारी