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श्री रामचरितमानस: सती की परीक्षा और शिवजी का त्याग

इस लेख में श्री रामचरितमानस के महत्वपूर्ण प्रसंगों का वर्णन किया गया है, जिसमें सती की परीक्षा और शिवजी का त्याग शामिल हैं। जानें कैसे सतीजी ने रघुनाथजी को देखा और शिवजी ने उनके प्रति अपने प्रेम को कैसे समझा। यह कथा न केवल धार्मिक महत्व रखती है, बल्कि जीवन के गहरे अर्थों को भी उजागर करती है। पढ़ें पूरी कहानी और जानें इसके पीछे के भावार्थ।
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श्री रामचरितमानस: सती की परीक्षा और शिवजी का त्याग

श्री रामचन्द्राय नम:

श्री रामचन्द्राय नम:




पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं


मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।


श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये


ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः॥




चौपाई :


देखे जहँ जहँ रघुपति जेते। सक्तिन्ह सहित सकल सुर तेते॥


जीव चराचर जो संसारा। देखे सकल अनेक प्रकारा॥




भावार्थ:-


सतीजी ने जहाँ-जहाँ रघुनाथजी को देखा, वहाँ उतने ही देवताओं को भी देखा। संसार में जो जीव हैं, वे भी अनेक प्रकार के हैं।




चौपाई :


पूजहिं प्रभुहि देव बहु बेषा। राम रूप दूसर नहिं देखा॥


अवलोके रघुपति बहुतेरे। सीता सहित न बेष घनेरे॥




भावार्थ:-


उन्होंने देखा कि अनेक रूप धारण करके देवता प्रभु श्री रामचन्द्रजी की पूजा कर रहे हैं, लेकिन श्री रामचन्द्रजी का दूसरा रूप कहीं नहीं देखा। सीता सहित श्री रघुनाथजी को बहुत से देखा, पर उनके रूप अनेक नहीं थे।


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चौपाई :


सोइ रघुबर सोइ लछिमनु सीता। देखि सती अति भईं सभीता॥


हृदय कंप तन सुधि कछु नाहीं। नयन मूदि बैठीं मग माहीं॥




भावार्थ:-


सतीजी ने देखा कि वही रघुनाथजी, वही लक्ष्मण और वही सीता हैं। यह देखकर सतीजी बहुत डर गईं। उनका हृदय काँपने लगा और देह की सारी सुध-बुध जाती रही। वे आँख मूँदकर मार्ग में बैठ गईं।


 


चौपाई :


बहुरि बिलोकेउ नयन उघारी। कछु न दीख तहँ दच्छकुमारी॥


पुनि पुनि नाइ राम पद सीसा। चलीं तहाँ जहँ रहे गिरीसा॥




भावार्थ:-


फिर आँख खोलकर देखा, तो वहाँ दक्षकुमारी सतीजी को कुछ भी न दिखा। तब वे बार-बार श्री रामचन्द्रजी के चरणों में सिर नवाकर वहाँ चलीं, जहाँ शिवजी थे।


 


दोहा :


गईं समीप महेस तब हँसि पूछी कुसलात।


लीन्हि परीछा कवन बिधि कहहु सत्य सब बात॥




भावार्थ:-


जब पास पहुँचीं, तब श्री शिवजी ने हँसकर कुशल प्रश्न किया और कहा कि तुमने रामजी की किस प्रकार परीक्षा ली, सारी बात सच-सच कहो।




चौपाई :


सतीं समुझि रघुबीर प्रभाऊ। भय बस सिव सन कीन्ह दुराऊ॥


कछु न परीछा लीन्हि गोसाईं। कीन्ह प्रनामु तुम्हारिहि नाईं॥




भावार्थ:-


सतीजी ने श्री रघुनाथजी के प्रभाव को समझकर डर के मारे शिवजी से छिपाया और कहा- हे स्वामिन्‌! मैंने कोई भी परीक्षा नहीं ली, वहाँ जाकर आपकी ही तरह प्रणाम किया।


 


चौपाई :


जो तुम्ह कहा सो मृषा न होई। मोरें मन प्रतीति अति सोई॥


तब संकर देखेउ धरि ध्याना। सतीं जो कीन्ह चरित सबु जाना॥




भावार्थ:-


आपने जो कहा वह झूठ नहीं हो सकता, मेरे मन में यह पूरा विश्वास है। तब शिवजी ने ध्यान करके देखा और सतीजी ने जो चरित्र किया था, सब जान लिया।




चौपाई :


बहुरि राममायहि सिरु नावा। प्रेरि सतिहि जेहिं झूठ कहावा॥


हरि इच्छा भावी बलवाना। हृदयँ बिचारत संभु सुजाना॥




भावार्थ:-


फिर श्री रामचन्द्रजी की माया को सिर नवाया, जिसने प्रेरणा देकर सती के मुँह से भी झूठ कहलवा दिया। सुजान शिवजी ने मन में विचार किया कि हरि की इच्छा रूपी भावी प्रबल है।


 


चौपाई :


सतीं कीन्ह सीता कर बेषा। सिव उर भयउ बिषाद बिसेषा॥


जौं अब करउँ सती सन प्रीती। मिटइ भगति पथु होइ अनीती॥




भावार्थ:-


सतीजी ने सीताजी का वेष धारण किया, यह जानकर शिवजी के हृदय में बड़ा विषाद हुआ। उन्होंने सोचा कि यदि मैं अब सती से प्रीति करता हूँ तो भक्तिमार्ग लुप्त हो जाता है और बड़ा अन्याय होता है।




शिवजी द्वारा सती का त्याग, शिवजी की समाधि 




दोहा :


परम पुनीत न जाइ तजि किएँ प्रेम बड़ पापु।


प्रगटि न कहत महेसु कछु हृदयँ अधिक संतापु॥




भावार्थ:-


सती परम पवित्र हैं, इसलिए इन्हें छोड़ना भी उचित नहीं है और प्रेम करने में बड़ा पाप है। महादेवजी प्रकट में कुछ नहीं कहते, परन्तु उनके हृदय में बड़ा संताप है।


 


चौपाई :


तब संकर प्रभु पद सिरु नावा। सुमिरत रामु हृदयँ अस आवा॥


एहिं तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं। सिव संकल्पु कीन्ह मन माहीं॥




भावार्थ:-


तब शिवजी ने प्रभु श्री रामचन्द्रजी के चरण कमलों में सिर नवाया और श्री रामजी का स्मरण करते ही उनके मन में यह आया कि सती के इस शरीर से मेरी पति-पत्नी रूप में भेंट नहीं हो सकती और शिवजी ने अपने मन में यह संकल्प कर लिया।


 


चौपाई :


अस बिचारि संकरु मतिधीरा। चले भवन सुमिरत रघुबीरा॥


चलत गगन भै गिरा सुहाई। जय महेस भलि भगति दृढ़ाई॥




भावार्थ:-


स्थिर बुद्धि शंकरजी ऐसा विचार कर श्री रघुनाथजी का स्मरण करते हुए अपने घर कैलास को चले। चलते समय सुंदर आकाशवाणी हुई कि हे महेश ! आपकी जय हो। आपने भक्ति की अच्छी दृढ़ता की।


 


चौपाई :


अस पन तुम्ह बिनु करइ को आना। रामभगत समरथ भगवाना॥


सुनि नभगिरा सती उर सोचा। पूछा सिवहि समेत सकोचा॥




भावार्थ:-


आपको छोड़कर दूसरा कौन ऐसी प्रतिज्ञा कर सकता है। आप श्री रामचन्द्रजी के भक्त हैं, समर्थ हैं और भगवान्‌ हैं। इस आकाशवाणी को सुनकर सतीजी के मन में चिन्ता हुई और उन्होंने सकुचाते हुए शिवजी से पूछा-


 


चौपाई :


कीन्ह कवन पन कहहु कृपाला। सत्यधाम प्रभु दीनदयाला॥


जदपि सतीं पूछा बहु भाँती। तदपि न कहेउ त्रिपुर आराती॥




भावार्थ:-


हे कृपालु ! कहिए, आपने कौन सी प्रतिज्ञा की है? हे प्रभो! आप सत्य के धाम और दीनदयालु हैं। यद्यपि सतीजी ने बहुत प्रकार से पूछा, परन्तु त्रिपुरारि शिवजी ने कुछ न कहा।


 


दोहा :


सतीं हृदयँ अनुमान किय सबु जानेउ सर्बग्य।


कीन्ह कपटु मैं संभु सन नारि सहज जड़ अग्य॥




भावार्थ:-


सतीजी ने हृदय में अनुमान किया कि सर्वज्ञ शिवजी सब जान गए। मैंने शिवजी से कपट किया, स्त्री स्वभाव से ही मूर्ख और बेसमझ होती है।




सोरठा :


जलु पय सरिस बिकाइ देखहु प्रीति कि रीति भलि।


बिलग होइ रसु जाइ कपट खटाई परत पुनि॥


 


भावार्थ:-


प्रीति की सुंदर रीति देखिए कि जल भी दूध के साथ मिलकर दूध के समान भाव बिकता है, परन्तु फिर कपट रूपी खटाई पड़ते ही पानी अलग हो जाता है, दूध फट जाता है और स्वाद चला जाता है।


 


चौपाई :


हृदयँ सोचु समुझत निज करनी। चिंता अमित जाइ नहिं बरनी॥


कृपासिंधु सिव परम अगाधा। प्रगट न कहेउ मोर अपराधा॥




भावार्थ:-


अपनी करनी को याद करके सतीजी के हृदय में इतना सोच है और इतनी अपार चिन्ता है कि जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता। उन्होंने समझ लिया कि शिवजी कृपा के परम अथाह सागर हैं। इससे प्रकट में उन्होंने मेरा अपराध नहीं कहा।


 


चौपाई :


संकर रुख अवलोकि भवानी। प्रभु मोहि तजेउ हृदयँ अकुलानी॥


निज अघ समुझि न कछु कहि जाई। तपइ अवाँ इव उर अधिकाई॥




भावार्थ:-


शिवजी का रुख देखकर सतीजी ने जान लिया कि स्वामी ने मेरा त्याग कर दिया और वे हृदय में व्याकुल हो उठीं। अपना पाप समझकर कुछ कहते नहीं बनता, परन्तु हृदय भीतर ही भीतर कुम्हार के आँवे के समान अत्यन्त जलने लगा।


 


चौपाई :


सतिहि ससोच जानि बृषकेतू। कहीं कथा सुंदर सुख हेतू॥


बरनत पंथ बिबिध इतिहासा। बिस्वनाथ पहुँचे कैलासा॥




भावार्थ:-


वृषकेतु शिवजी ने सती को चिन्तायुक्त जानकर उन्हें सुख देने के लिए सुंदर कथाएँ कहीं। इस प्रकार मार्ग में विविध प्रकार के इतिहासों को कहते हुए विश्वनाथ कैलास जा पहुँचे।


 


चौपाई :


तहँ पुनि संभु समुझि पन आपन। बैठे बट तर करि कमलासन॥


संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा॥




भावार्थ:-


वहाँ फिर शिवजी अपनी प्रतिज्ञा को याद करके बड़ के पेड़ के नीचे पद्मासन लगाकर बैठ गए। शिवजी ने अपना स्वाभाविक रूप संभाला। उनकी अखण्ड और अपार समाधि लग गई।


 


दोहा :


सती बसहिं कैलास तब अधिक सोचु मन माहिं।


मरमु न कोऊ जान कछु जुग सम दिवस सिराहिं॥




भावार्थ:-


तब सतीजी कैलास पर रहने लगीं। उनके मन में बड़ा दुःख था। इस रहस्य को कोई कुछ भी नहीं जानता था। उनका एक-एक दिन युग के समान बीत रहा था।




चौपाई :


नित नव सोचु सती उर भारा। कब जैहउँ दुख सागर पारा॥


मैं जो कीन्ह रघुपति अपमाना। पुनि पतिबचनु मृषा करि जाना॥




भावार्थ:-


सतीजी के हृदय में नित्य नया और भारी सोच हो रहा था कि मैं इस दुःख समुद्र के पार कब जाऊँगी। मैंने जो श्री रघुनाथजी का अपमान किया और फिर पति के वचनों को झूठ जाना-


 


चौपाई :


सो फलु मोहि बिधाताँ दीन्हा। जो कछु उचित रहा सोइ कीन्हा॥


अब बिधि अस बूझिअ नहिं तोही। संकर बिमुख जिआवसि मोही॥




भावार्थ:-


उसका फल विधाता ने मुझको दिया, जो उचित था वही किया, परन्तु हे विधाता! अब तुझे यह उचित नहीं है, जो शंकर से विमुख होने पर भी मुझे जिलाए हुए है।


 


चौपाई:


कहि न जाइ कछु हृदय गलानी। मन महुँ रामहि सुमिर सयानी॥


जौं प्रभु दीनदयालु कहावा। आरति हरन बेद जसु गावा




भावार्थ:-


सतीजी के हृदय की ग्लानि कुछ कही नहीं जाती। बुद्धिमती सतीजी ने मन में श्री रामचन्द्रजी का स्मरण किया और कहा- हे प्रभो! यदि आप दीनदयालु कहलाते हैं और वेदों ने आपका यह यश गाया है कि आप दुःख को हरने वाले हैं,




चौपाई :


तौ मैं बिनय करउँ कर जोरी। छूटउ बेगि देह यह मोरी॥


जौं मोरें सिव चरन सनेहू। मन क्रम बचन सत्य ब्रतु एहू॥




भावार्थ:-


तो मैं हाथ जोड़कर विनती करती हूँ कि यदि मेरा शिवजी के चरणों में प्रेम है और मेरा यह प्रेम का व्रत मन, वचन और कर्म आचरण से सत्य है, तो मेरी यह देह जल्दी छूट जाए।


 


शेष अगले प्रसंग में -------------




राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।


सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥




- आरएन तिवारी