स्वर्ग का सुख: क्या यह आत्मा को तृप्त कर सकता है?
 
                           
                        स्वर्ग की स्थिति और मानव की इच्छाएँ
इस संसार की स्थिति अत्यंत अद्भुत है। जीव, जो माया में उलझा हुआ है, निचले स्तरों पर संतुष्ट नहीं होता, और ऊँचाई पर पहुँचकर भी उसे शांति नहीं मिलती। उसकी हर इच्छा स्वर्ग के समान सुख की चाह रखती है। लेकिन क्या वास्तव में स्वर्ग का सुख आत्मा को तृप्त कर सकता है? पिछले अनुभवों से ऐसा नहीं लगता। जब स्वर्ग के राजा इन्द्र स्वयं अशांत हैं, तो अन्य लोगों की स्थिति का अनुमान लगाना आसान है।
इन्द्र का संशय और कामदेव का बुलावा
जब इन्द्र ने देखा कि नारद मुनि लंबे समय से समाधि में हैं, तो उनके मन में संशय उत्पन्न हुआ। उन्होंने सोचा, "क्या नारद मुनि मेरे इन्द्रासन पर नजरें गड़ाए हुए हैं?" इस विचार ने उनके विवेक को कमजोर कर दिया। पद के अहंकार ने उनकी बुद्धि को ढक दिया। परिणामस्वरूप, वे संशय में पड़कर कामदेव को बुलाते हैं और कहते हैं—
“मुनि गति देखि सुरेस डेराना।
कामहि बोलि कीन्ह सनमाना।।
सहित सहाय जाहु मम हेतू।
चलेउ हरषि हियँ जलचरकेतू।।"
कामदेव का सम्मान और उसकी शक्ति
इन्द्र ने कामदेव का उचित सम्मान किया और उन्हें आदेश दिया, "हे कामदेव! आपकी शक्ति अद्वितीय है। आप कई बार देवताओं के कार्यों को सफल बना चुके हैं। आज आप नारद मुनि की समाधि को भंग कर हमें इस संशय से मुक्त करें।" कामदेव के लिए यह सम्मान अप्रत्याशित था। संसार में 'राम' के उपासक तो दुर्लभ हैं, लेकिन 'काम' के उपासक हर जगह हैं। फिर भी, कामदेव को कभी सार्वजनिक सम्मान नहीं मिलता।
इन्द्र और कामदेव का अहंकार
सम्मान का मद केवल मनुष्यों को ही नहीं, देवताओं को भी विवेकहीन बना देता है। कामदेव ने यह नहीं सोचा कि एक समय उसने भगवान शंकर की समाधि भंग करने का दुस्साहस किया था और उसका क्या परिणाम हुआ था। इतिहास की शिक्षा केवल वही ग्रहण करता है, जो अहंकार के पर्दे से मुक्त हो। लेकिन यहाँ इन्द्र और कामदेव दोनों ही अहंकार के जाल में फँस चुके थे।
नारद मुनि की भक्ति
इन्द्र की मूर्खता अपने चरम पर थी। उन्हें यह समझने की आवश्यकता नहीं पड़ी कि नारद मुनि की समाधि का उद्देश्य क्या है। क्या वे सचमुच स्वर्ग का सिंहासन चाहते हैं, या प्रभु की भक्ति में लीन हैं? जब मन पर पद का मद छा जाता है, तब सत्य की आवाज सुनाई नहीं देती। काश! इन्द्र को प्रभुचरणों की याद होती, तो वे समझ पाते कि प्रभु के भक्त के लिए स्वर्ग केवल मृग-मरीचिका के समान है।
कामदेव का प्रयास
कामदेव, इन्द्र के आदेशानुसार, नारद मुनि की ओर बढ़ता है। वहाँ पहुँचकर उसने अपनी मायावी शक्ति से वसंत ऋतु का सृजन कर दिया। क्षण भर में वातावरण बदल गया। वृक्षों पर रंग-बिरंगे पुष्प खिल उठे, कोयल की मधुर कूक गूँजने लगी, और सुगंधित पवन बहने लगी। कामदेव ने सोचा, "अब तो यह समाधि अवश्य भंग होगी। नारद मुनि जैसे स्थिर तपस्वी भी इस वातावरण से विचलित हुए बिना नहीं रह सकेंगे।"
भक्ति की शक्ति
लेकिन यही कामदेव की भ्रांति थी। वह भूल गया कि भक्ति की ज्वाला में काम की अग्नि स्वयं भस्म हो जाती है। नारद मुनि, जिनके हृदय में राम नाम का अनहद नाद गूँज रहा था, वे संसार के किसी भी आकर्षण से विचलित कैसे हो सकते हैं? जिस व्यक्ति की दृष्टि 'प्रेम' में स्थिर है, उसे 'काम' डिगा नहीं सकता।
सच्चे भक्त की पहचान
इन्द्र और कामदेव का यह प्रयास केवल यह सिद्ध करने के लिए पर्याप्त था कि जिस मनुष्य के अंतःकरण में असुरक्षा और अहंकार हो, वह देव होकर भी पतन के मार्ग पर चल पड़ता है। प्रभु का सच्चा भक्त स्वयं में पूर्ण होता है। उसे पद, प्रतिष्ठा, यश या वैभव का मोह नहीं रहता। इन्द्र जैसे देवता, जो स्वर्ग के राजा होकर भी भयभीत हैं, वे वास्तव में दीन हैं। और नारद जैसे मुनि, जो संन्यासी होकर भी अटल हैं, वे वास्तव में धन्य हैं।
अगले अंक की प्रतीक्षा
अब प्रश्न यही है—क्या कामदेव अपनी शक्ति से नारद मुनि की समाधि को भंग कर पाता है? क्या देवराज इन्द्र का संशय सत्य सिद्ध होता है, या वह स्वयं अपने भ्रम में फँस जाता है? इस रहस्य को जानने हेतु—अगले अंक की प्रतीक्षा कीजिए...
