प्रेमचंद की जयंती: साहित्य में यथार्थवाद का प्रवर्तक

प्रेमचंद का जीवन और संघर्ष
31 जुलाई 1880 को वाराणसी के लमही गांव में जन्मे धनपत राय, जिन्हें प्रेमचंद के नाम से जाना जाता है, ने अपने जीवन में कई कठिनाइयों का सामना किया। उनकी मां का निधन जब वह केवल आठ वर्ष के थे, तब हुआ, और किशोरावस्था में ही उनके पिता भी गुजर गए। आर्थिक तंगी और जिम्मेदारियों के बीच प्रेमचंद ने अपनी शिक्षा जारी रखी, लेकिन वकालत का सपना अधूरा रह गया।
साहित्य में समाज की आवाज
प्रेमचंद ने साहित्य को केवल कल्पना तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उन्होंने समाज की वास्तविकताओं को अपनी लेखनी के माध्यम से उजागर किया। उनकी रचनाएं, जैसे 'ईदगाह' और 'गोदान', जीवन की सच्चाइयों को दर्शाती हैं। जब अंग्रेजी शासन ने उनकी लेखनी को खतरा समझा, तो 'सोज़े वतन' को जब्त कर जला दिया गया। इसके बाद उन्होंने 'प्रेमचंद' नाम से लिखना शुरू किया और साहित्य को सामाजिक सुधार का माध्यम बनाया।
यथार्थवाद का नया आयाम
प्रेमचंद ने साहित्य में यथार्थवाद की नींव रखी, जो समाज का सच्चा प्रतिबिंब था और बदलाव की दिशा में एक कदम आगे बढ़ाता था। उनकी कहानियां और उपन्यास किसानों, श्रमिकों, महिलाओं और शोषित वर्गों की आवाज बनकर उभरे।
गोदान: किसान की महागाथा
'गोदान' केवल एक उपन्यास नहीं है, बल्कि यह भारतीय ग्रामीण जीवन का जीवंत दस्तावेज है। होरी जैसे किसान की कहानी को प्रेमचंद ने इतनी संवेदनशीलता से लिखा कि पाठक उसकी पीड़ा को महसूस कर सकते हैं। यह उपन्यास आज भी उतना ही प्रासंगिक है जितना पहले था।
ईदगाह: मासूमियत और संवेदनशीलता
'ईदगाह' की कहानी केवल बच्चों के मनोविज्ञान को नहीं दर्शाती, बल्कि त्याग और भावनाओं की गहराई को भी उजागर करती है। हामिद का अपनी दादी के लिए चिमटा खरीदना आज भी पाठकों की आंखों में आंसू ला देता है। यह प्रेमचंद की कहानियों में गहराई की संवेदनशीलता को दर्शाता है।
साहित्य का सामाजिक परिवर्तन में योगदान
प्रेमचंद ने साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन नहीं, बल्कि सामाजिक परिवर्तन का एक प्रभावी उपकरण बना दिया। उन्होंने 300 से अधिक कहानियां और 15 उपन्यासों में भारतीय समाज के हर पहलू को उजागर किया। उनके शब्द आज भी जीवित हैं और नई पीढ़ियों को सोचने, समझने और बदलाव की दिशा में प्रेरित करते हैं।