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भगवान शंकर की कथा: जलंधर राक्षस और पतिव्रता वृंदा का अद्भुत प्रसंग

भगवान शंकर की कथा में जलंधर राक्षस और पतिव्रता वृंदा का अद्भुत प्रसंग प्रस्तुत किया गया है। यह कथा केवल राक्षस-वध की नहीं, बल्कि धर्म और अधर्म के संतुलन की कहानी है। जानें कैसे भगवान विष्णु ने वृंदा के पतिव्रत धर्म को तोड़कर जलंधर की शक्ति को समाप्त किया और वृंदा ने तुलसी के रूप में अमरता प्राप्त की। यह कथा आज भी भक्तों के लिए प्रेरणा का स्रोत है।
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भगवान शंकर की कथा: जलंधर राक्षस और पतिव्रता वृंदा का अद्भुत प्रसंग

भगवान शंकर की दिव्य कथा

भगवान शंकर के मुख से निकली पवित्र श्रीरामकथा का रस केवल माता पार्वती ही नहीं, बल्कि वहां उपस्थित सभी देवता, सिद्ध-साधक, वृक्ष, लताएँ, पुष्प और पवन भी सुन रहे थे। पूरा कैलाश पर्वत उस दिव्य वाणी से पुलकित हो उठा।


जलंधर राक्षस की कथा

जय-विजय की कथा के बाद, भगवान शंकर ने जलंधर राक्षस की एक गूढ़ कथा का उद्घाटन किया, जो केवल पराक्रम का ही नहीं, बल्कि पर्वत समान अहंकार का प्रतीक भी था।


महादेव ने कहा, "हे गिरिजे! सुनो उस असुर की लीला, जिसका बल अपार था, और जिसका अंत स्वयं मुझसे भी न हो सका था।"


जलंधर का प्रकट होना

वह असुर समुद्र मंथन के समय प्रकट हुआ था। समुद्र के तेज, रत्न और जल-ऊर्जा का संयोग उसके अंग-अंग में था, इसलिए उसका नाम जलंधर पड़ा — अर्थात् "जल से उत्पन्न, जल में स्थित, और जल-सा अजेय।"


उसका तेज इतना प्रखर था कि जब वह रणभूमि में उतरता, त्रैलोक्य थर्रा उठता। देवता एक-एक कर हार मानते गए, और अंततः भगवान शंकर स्वयं रणभूमि में उतरे। किंतु आश्चर्य! वह शिवशंकर से भी परास्त नहीं हुआ।


पतिव्रता वृंदा का धर्म

देवी पार्वती ने विस्मय से पूछा, "प्रभु! ऐसा कैसे हुआ कि आप स्वयं भी उस राक्षस को न मार सके?"


शिव ने उत्तर दिया, "देवि! उसके पीछे उसका पतिव्रत धर्म रक्षा कर रहा है। उसकी धर्मपत्नी वृंदा ऐसी पतिव्रता है, जिसके संकल्प में स्वयं सृष्टिकर्ता की शक्ति निहित है।"


विष्णु का हस्तक्षेप

जब भगवान शंकर ने देखा कि देवता, ऋषि, मानव सभी पीड़ित हो रहे हैं, तब वे मौन हो गए। उसी समय भगवान विष्णु प्रकट हुए और बोले, "देवेश! अब लोक-कल्याण के लिए एकमात्र उपाय यही है कि वृंदा के पतिव्रत का आधार ही खंडित किया जाए।"


माता पार्वती ने कहा, "प्रभु! क्या किसी पतिव्रता के धर्म को तोड़ना उचित है?"


वृंदा का शाप

भगवान विष्णु ने उत्तर दिया, "देवि! जब कोई गुण, जो प्रारंभ में दैवीय था, यदि अधर्म का पोषक बन जाए, तो उसका नाश भी धर्म ही कहलाता है।"


इसी नीति के अनुसार भगवान विष्णु ने जलंधर का रूप धारण किया और वृंदा के घर पहुँचे। वृंदा ने उन्हें अपने पति समझकर निष्ठापूर्वक पूजन किया।


जलंधर का अंत

जब भगवान ने अपने वास्तविक स्वरूप का दर्शन कराया, तो वृंदा का हृदय स्तब्ध हो गया। उसने भगवान विष्णु को शाप दिया, "हे विष्णु! जैसे मैं आपके सम्मुख पत्थरवत् भाव में स्थिर रही, वैसे ही आप भी शिलारूप धारण करें।"


भगवान विष्णु ने उस शाप को स्वीकार किया। वृंदा के देह त्याग के बाद वह तुलसी के रूप में प्रकट हुईं।


तुलसी का महत्व

भगवान विष्णु ने कहा, "हे तुलसी! तुम्हारा पतिव्रत धर्म अमर रहेगा। तुम मेरे व्रत, पूजन और विवाह में अनिवार्य रहोगी।"


वृंदा का पतिव्रत धर्म भंग होते ही जलंधर की शक्ति क्षीण हो गई। भगवान शंकर ने अपने त्रिशूल का प्रहार किया और जलंधर का अंत हो गया।


धर्म और अधर्म का संतुलन

शिव ने कहा, "वही जलंधर, अपने कर्मफलवश, अगले जन्म में रावण बनकर प्रकट हुआ।"


यह कथा केवल राक्षस-वध की नहीं, बल्कि धर्म और अधर्म के सूक्ष्म संतुलन की कथा है।


आज भी तुलसी का महत्व

आज भी हर भक्त के आँगन में तुलसी का पौधा उसी सत्य, त्याग और पतिव्रत धर्म का प्रतीक बनकर पवित्रता की सुवास बिखेरता है।