भारत-चीन संबंधों का ऐतिहासिक सफर: नेहरू से मोदी तक
भारत और चीन के रिश्तों का विकास
भारत और चीन, एशिया की प्रमुख शक्तियाँ, हमेशा से चर्चा का विषय रही हैं। क्या आपने कभी सोचा है कि स्वतंत्रता के बाद से भारत के प्रधानमंत्रियों ने चीन के साथ अपने संबंधों को कैसे विकसित किया है? इस लेख में हम देखेंगे कि जवाहरलाल नेहरू से लेकर नरेंद्र मोदी तक, भारत-चीन संबंधों का सफर कैसा रहा।जवाहरलाल नेहरू: मित्रता की शुरुआत और युद्ध का सामना
भारत के पहले प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू ने चीन के साथ मित्रता की नीति अपनाई। 1950 में भारत ने कम्युनिस्ट चीन को मान्यता दी और 1954 में पंचशील समझौते पर हस्ताक्षर किए, जिसने शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व को बढ़ावा दिया। "हिंदी-चीनी भाई-भाई" का नारा इसी समय प्रचलित हुआ। लेकिन 1962 में युद्ध ने इस रिश्ते को गंभीर रूप से प्रभावित किया।
लाल बहादुर शास्त्री: सीमित कार्यकाल में सख्त रवैया
शास्त्री जी का कार्यकाल छोटा था, लेकिन 1965 के भारत-पाक युद्ध के दौरान चीन ने अरुणाचल सीमा पर दबाव डाला। उन्होंने चीन की धमकियों का डटकर सामना किया और रक्षा तैयारियों को मजबूत किया।
इंदिरा गांधी: तनाव के बावजूद कूटनीतिक प्रयास
इंदिरा गांधी के शासन में भी भारत-चीन संबंध सामान्य नहीं रहे। 1967 में नाथू ला और चो ला में झड़पें हुईं, लेकिन 1976 में राजनयिक संबंधों की बहाली हुई।
राजीव गांधी: रिश्तों में नई शुरुआत
1988 में राजीव गांधी का चीन दौरा एक महत्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ। यह 1962 के युद्ध के बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री का पहला दौरा था, जिसने व्यापार और संवाद को बढ़ावा दिया।
अटल बिहारी वाजपेयी: संवाद और समाधान की पहल
वाजपेयी सरकार ने 2003 में सीमा विवाद पर बातचीत के लिए विशेष प्रतिनिधि तंत्र की शुरुआत की। 2006 में नाथू ला दर्रे को व्यापार के लिए खोला गया।
मनमोहन सिंह: आर्थिक सहयोग और संतुलन की नीति
मनमोहन सिंह ने 2008 और 2013 में चीन का दौरा किया, जिससे व्यापारिक रिश्ते मजबूत हुए। हालांकि, 2013 में लद्दाख में चीनी घुसपैठ से तनाव बढ़ा।
नरेंद्र मोदी: दोस्ती और टकराव का दौर
मोदी के कार्यकाल में भारत-चीन संबंधों में कई उतार-चढ़ाव आए। 2014 में शी जिनपिंग का भारत दौरा हुआ और 2015 में मोदी ने चीन का दौरा किया। लेकिन 2020 में गलवान घाटी में हिंसक झड़प ने रिश्तों को गंभीर रूप से प्रभावित किया।