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भारतीय बौद्धिकता में चिंतन-फोबिया: एक गंभीर समस्या

इस लेख में भारतीय बौद्धिकता में 'चिंतन-फोबिया' की समस्या पर चर्चा की गई है। क्या यह डर है जो लोगों को स्थापित विचारों को चुनौती देने से रोकता है? गांधीजी के विचारों के संदर्भ में प्रस्तुत पर्चे के माध्यम से यह स्पष्ट किया गया है कि आज के बौद्धिकों में विचारों की जड़ता और अंधभक्ति की प्रवृत्तियाँ कैसे विकसित हो रही हैं। क्या यह स्थिति हमें स्वतंत्रता की ओर बढ़ने से रोक रही है? जानें इस लेख में।
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भारतीय बौद्धिकता में चिंतन-फोबिया: एक गंभीर समस्या

चिंतन-फोबिया का परिचय

क्या भारतीयों, विशेषकर हिंदुओं में 'चिंतन-फोबिया' का अस्तित्व है? क्या यह सोच-विचार से डरने का परिणाम है, ताकि स्थापित विचारों, नेताओं और मतों को चुनौती न दी जाए? क्या यह डर है कि यदि ये प्रतिमाएँ खंडित हो गईं, तो दशकों से पाले गए विश्वास का क्या होगा?


गांधीजी के विचारों पर चर्चा

एक शैक्षणिक संस्थान में गांधीजी के अहिंसा और सत्य पर आधारित विचारों पर एक पर्चा प्रस्तुत किया गया। इस पर्चे में गांधीजी के विचारों की विसंगतियों को उजागर किया गया था। पर्चा पढ़ने के बाद, एक शोधार्थी ने कहा कि वह तर्कों से असहमत नहीं है, लेकिन फिर भी वह किसी बात से सहमत नहीं है।


बौद्धिक प्रवृत्तियाँ

आजकल लेखक, शिक्षक और पत्रकार विभिन्न बौद्धिक सामग्री का सामना करते हैं। इनमें से कुछ प्रमुख प्रवृत्तियाँ निम्नलिखित हैं:


  • राजनीतिक मानसिकता: समाज, साहित्य और कला को राजनीतिक दृष्टिकोण से देखना।
  • निंदा की आदत: किसी व्यक्ति या संस्था की आलोचना करना बिना किसी ठोस आधार के।
  • कर्तव्य की अनदेखी: अनुचित स्थितियों के लिए दूसरों को दोष देना।
  • सुसंगतता का अभाव: एक ही बात को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखना।
  • भक्ति का अंधापन: विचारों की बिना परख के स्वीकार्यता।


बौद्धिकता का संकट

भारतीय बौद्धिकता में यह अंधभक्ति एक कैंसर की तरह फैल चुकी है। सत्य और प्रमाण की कसौटियों से परे, लोग अपने पूर्वाग्रहों के आधार पर विचारों को स्वीकार करते हैं। यह स्थिति चिंतन-फोबिया की ओर इशारा करती है, जहां स्वतंत्रता की भावना को दबाया जाता है।


निष्कर्ष

क्या यह डर बौद्धिकों को वैचारिक जड़ता में बांधता है? क्या वे स्वतंत्रता की ओर बढ़ने के बजाय अपने बनाए पिंजड़े में लौट आते हैं? यह एक गंभीर प्रश्न है, जिसका उत्तर हमें खोजने की आवश्यकता है।