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श्री रामचन्द्रजी के अद्भुत चरित्र का वर्णन

इस लेख में श्री रामचन्द्रजी के अद्भुत चरित्र और उनके रहस्यों का वर्णन किया गया है। पार्वतीजी और शिवजी के संवाद के माध्यम से राम की महिमा को उजागर किया गया है। जानें कैसे शिवजी ने राम के गुणों का गुणगान किया और उनके चरित्र के अद्भुत पहलुओं को साझा किया। यह कथा न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह भक्ति और ज्ञान का भी प्रतीक है।
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श्री रामचन्द्रजी के अद्भुत चरित्र का वर्णन

श्री रामचन्द्रजी की महिमा

श्री रामचन्द्राय नम:




पुण्यं पापहरं सदा शिवकरं विज्ञानभक्तिप्रदं


मायामोहमलापहं सुविमलं प्रेमाम्बुपूरं शुभम्।


श्रीमद्रामचरित्रमानसमिदं भक्त्यावगाहन्ति ये


ते संसारपतङ्गघोरकिरणैर्दह्यन्ति नो मानवाः




दोहा :


बहुरि कहहु करुनायतन कीन्ह जो अचरज राम।


प्रजा सहित रघुबंसमनि किमि गवने निज धाम॥




भगवती पार्वती शिवजी से कह रही हैं ----हे कृपाधाम! फिर वह अद्भुत चरित्र कहिए जो श्री रामचन्द्रजी ने किया- वे रघुकुल शिरोमणि प्रजा सहित किस प्रकार अपने धाम को गए?॥


 


चौपाई:


पुनि प्रभु कहहु सो तत्त्व बखानी। जेहिं बिग्यान मगन मुनि ग्यानी॥


भगति ग्यान बिग्यान बिरागा। पुनि सब बरनहु सहित बिभागा॥




हे प्रभु! फिर आप उस तत्त्व को समझाकर कहिए, जिसकी अनुभूति में ज्ञानी मुनिगण सदा मग्न रहते हैं और फिर भक्ति, ज्ञान, विज्ञान और वैराग्य का विभाग सहित वर्णन कीजिए॥1॥


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औरउ राम रहस्य अनेका। कहहु नाथ अति बिमल बिबेका॥


जो प्रभु मैं पूछा नहिं होई। सोउ दयाल राखहु जनि गोई॥2॥




श्री रामचन्द्रजी के और भी जो अनेक रहस्य छिपे हुए भाव अथवा चरित्र हैं, उनको कहिए। हे नाथ! आपका ज्ञान अत्यन्त निर्मल है। हे प्रभो! जो बात मैंने न भी पूछी हो, हे दयालु! उसे भी आप छिपा न रखिएगा॥2॥


 


तुम्ह त्रिभुवन गुर बेद बखाना। आन जीव पाँवर का जाना॥


प्रस्न उमा कै सहज सुहाई। छल बिहीन सुनि सिव मन भाई॥3॥




वेदों ने आपको तीनों लोकों का गुरु कहा है। दूसरे पामर जीव इस रहस्य को क्या जानें! पार्वतीजी के सहज सुंदर और छलरहित (सरल) प्रश्न सुनकर शिवजी के मन को बहुत अच्छे लगे॥3॥


 


हर हियँ रामचरित सब आए। प्रेम पुलक लोचन जल छाए॥


श्रीरघुनाथ रूप उर आवा। परमानंद अमित सुख पावा॥4॥




श्री महादेवजी के हृदय में सारे रामचरित्र आ गए। प्रेम के मारे उनका शरीर पुलकित हो गया और नेत्रों में जल भर आया। श्री रघुनाथजी का रूप उनके हृदय में आ गया, जिससे स्वयं परमानन्दस्वरूप शिवजी ने भी अपार सुख पाया॥4॥


 


दोहा :


मगन ध्यान रस दंड जुग पुनि मन बाहेर कीन्ह।


रघुपति चरित महेस तब हरषित बरनै लीन्ह॥




भावार्थ:-शिवजी दो घड़ी तक ध्यान के रस (आनंद) में डूबे रहे, फिर उन्होंने मन को बाहर खींचा और तब वे प्रसन्न होकर श्री रघुनाथजी का चरित्र वर्णन करने लगे॥


 


चौपाई :


झूठेउ सत्य जाहि बिनु जानें। जिमि भुजंग बिनु रजु पहिचानें॥


जेहि जानें जग जाइ हेराई। जागें जथा सपन भ्रम जाई॥1॥




जिसके बिना जाने झूठ भी सत्य मालूम होता है, जैसे बिना पहचाने रस्सी में साँप का भ्रम हो जाता है और जिसके जान लेने पर जगत का उसी तरह लोप हो जाता है, जैसे जागने पर स्वप्न का भ्रम जाता रहता है॥1॥


 


बंदउँ बालरूप सोइ रामू। सब सिधि सुलभ जपत जिसु नामू॥


मंगल भवन अमंगल हारी। द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी॥2॥




भावार्थ:-मैं उन्हीं श्री रामचन्द्रजी के बाल रूप की वंदना करता हूँ, जिनका नाम जपने से सब सिद्धियाँ सहज ही प्राप्त हो जाती हैं। मंगल के धाम, अमंगल के हरने वाले और श्री दशरथजी के आँगन में खेलने वाले श्री रामचन्द्रजी मुझ पर कृपा करें॥2॥




करि प्रनाम रामहि त्रिपुरारी। हरषि सुधा सम गिरा उचारी॥


धन्य धन्य गिरिराजकुमारी। तुम्ह समान नहिं कोउ उपकारी॥3॥




त्रिपुरासुर का वध करने वाले शिवजी श्री रामचन्द्रजी को प्रणाम करके आनंद में भरकर अमृत के समान वाणी बोले- हे गिरिराजकुमारी पार्वती! तुम धन्य हो! धन्य हो!! तुम्हारे समान कोई उपकारी नहीं है॥3॥


 


पूँछेहु रघुपति कथा प्रसंगा। सकल लोक जग पावनि गंगा॥


तुम्ह रघुबीर चरन अनुरागी। कीन्हिहु प्रस्न जगत हित लागी॥4॥




जो तुमने श्री रघुनाथजी की कथा का प्रसंग पूछा है, जो कथा समस्त लोकों के लिए जगत को पवित्र करने वाली गंगाजी के समान है। तुमने जगत के कल्याण के लिए ही प्रश्न पूछे हैं। तुम श्री रघुनाथजी के चरणों में प्रेम रखने वाली हो॥4॥


 


दोहा :


राम कृपा तें पारबति सपनेहुँ तव मन माहिं।


सोक मोह संदेह भ्रम मम बिचार कछु नाहिं॥




भावार्थ:-हे पार्वती! मेरे विचार में तो श्री रामजी की कृपा से तुम्हारे मन में स्वप्न में भी शोक, मोह, संदेह और भ्रम कुछ भी नहीं है॥


 


चौपाई :


तदपि असंका कीन्हिहु सोई। कहत सुनत सब कर हित होई॥


जिन्ह हरिकथा सुनी नहिं काना। श्रवन रंध्र अहिभवन समाना॥1॥




फिर भी तुमने इसीलिए वही पुरानी शंका की है कि इस प्रसंग के कहने-सुनने से सबका कल्याण होगा। जिन्होंने अपने कानों से भगवान की कथा नहीं सुनी, उनके कानों के छिद्र साँप के बिल के समान हैं॥1॥


 


नयनन्हि संत दरस नहिं देखा। लोचन मोरपंख कर लेखा॥


तेसिर कटु तुंबरि समतूला। जे न नमत हरि गुर पद मूला॥2॥




जिन्होंने अपने नेत्रों से संतों के दर्शन नहीं किए, उनके वे नेत्र मोर के पंखों पर दिखने वाली नकली आँखों की गिनती में हैं। वे सिर कड़वी तूँबी के समान हैं, जो श्री हरि और गुरु के चरणतल पर नहीं झुकते॥2॥


 


जिन्ह हरिभगति हृदयँ नहिं आनी। जीवत सव समान तेइ प्रानी॥


जो नहिं करइ राम गुन गाना। जीह सो दादुर जीह समाना॥3॥




जिन्होंने भगवान की भक्ति को अपने हृदय में स्थान नहीं दिया, वे प्राणी जीते हुए ही मुर्दे के समान हैं, जो जीभ श्री रामचन्द्रजी के गुणों का गान नहीं करती, वह मेंढक की जीभ के समान है॥3॥


 


कुलिस कठोर निठुर सोइ छाती। सुनि हरिचरित न जो हरषाती॥


गिरिजा सुनहु राम कै लीला। सुर हित दनुज बिमोहनसीला॥4॥




वह हृदय वज्र के समान कड़ा और निष्ठुर है, जो भगवान के चरित्र सुनकर हर्षित नहीं होता। हे पार्वती! श्री रामचन्द्रजी की लीला सुनो, यह देवताओं का कल्याण करने वाली और दैत्यों को विशेष रूप से मोहित करने वाली है॥4॥


 


दोहा :


रामकथा सुरधेनु सम सेवत सब सुख दानि।


सतसमाज सुरलोक सब को न सुनै अस जानि॥113॥




भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी की कथा कामधेनु के समान सेवा करने से सब सुखों को देने वाली है और सत्पुरुषों के समाज ही सब देवताओं के लोक हैं, ऐसा जानकर इसे कौन न सुनेगा!॥113॥


 


चौपाई :


रामकथा सुंदर कर तारी। संसय बिहग उड़ावनिहारी॥


रामकथा कलि बिटप कुठारी। सादर सुनु गिरिराजकुमारी॥1॥




श्री रामचन्द्रजी की कथा हाथ की सुंदर ताली है, जो संदेह रूपी पक्षियों को उड़ा देती है। फिर रामकथा कलियुग रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी है। हे गिरिराजकुमारी! तुम इसे आदरपूर्वक सुनो॥1॥




राम नाम गुन चरित सुहाए। जनम करम अगनित श्रुति गाए॥


जथा अनंत राम भगवाना। तथा कथा कीरति गुन नाना॥2.




वेदों ने श्री रामचन्द्रजी के सुंदर नाम, गुण, चरित्र, जन्म और कर्म सभी अनगिनत कहे हैं। जिस प्रकार भगवान श्री रामचन्द्रजी अनन्त हैं, उसी तरह उनकी कथा, कीर्ति और गुण भी अनंत हैं॥2.


 


तदपि जथा श्रुत जसि मति मोरी। कहिहउँ देखि प्रीति अति तोरी॥


उमा प्रस्न तव सहज सुहाई। सुखद संतसंमत मोहि भाई॥3.




तो भी तुम्हारी अत्यन्त प्रीति देखकर, जैसा कुछ मैंने सुना है और जैसी मेरी बुद्धि है, उसी के अनुसार मैं कहूँगा। हे पार्वती! तुम्हारा प्रश्न स्वाभाविक ही सुंदर, सुखदायक और संतसम्मत है और मुझे तो बहुत ही अच्छा लगा है॥3.


 


एक बात नहिं मोहि सोहानी। जदपि मोह बस कहेहु भवानी॥


तुम्ह जो कहा राम कोउ आना। जेहि श्रुति गाव धरहिं मुनि ध्याना॥4.




परंतु हे पार्वती! एक बात मुझे अच्छी नहीं लगी, यद्यपि वह तुमने मोह के वश होकर ही कही है। तुमने जो यह कहा कि वे राम कोई और हैं, जिन्हें वेद गाते और मुनिजन जिनका ध्यान धरते हैं-॥4.


 


शेष अगले प्रसंग में -------------




राम रामेति रामेति, रमे रामे मनोरमे ।


सहस्रनाम तत्तुल्यं, रामनाम वरानने ॥




- आरएन तिवारी