सिद्धो-कान्हू का हूल आंदोलन: झारखंड की क्रांति की कहानी

हूल आंदोलन की शुरुआत
हूल दिवास: 30 जून 1855 को झारखंड के साहेबगंज जिले के भोगनाडीह गांव से एक ऐसी क्रांति का आगाज़ हुआ, जिसने ब्रिटिश शासन की नींव को हिला दिया। इस आंदोलन का नेतृत्व सिद्धो और कान्हू मुर्मू ने किया, जिसे 'हूल' के नाम से जाना जाता है। 'हूल' का अर्थ विद्रोह या क्रांति है। इस आंदोलन ने उस समय बिहार से बंगाल तक अंग्रेजों को कड़ी चुनौती दी।
संताल आदिवासियों का संगठित विद्रोह
सिद्धो और कान्हू के नेतृत्व में प्रारंभ हुआ यह विद्रोह लगभग 9 महीने तक चला और इसे संताल आदिवासियों का पहला संगठित जन आंदोलन माना जाता है। इसमें 52 गांवों के 50,000 से अधिक आदिवासियों ने भाग लिया। अंग्रेजों के अत्याचार और महाजनों के शोषण के खिलाफ उठाया गया यह कदम पूरे क्षेत्र में क्रांति की लहर की तरह फैल गया।
सिद्धो-कान्हू की शहादत
सिद्धो-कान्हू की शहादत बनी आदिवासियों की प्रेरणा
इस विद्रोह में सिद्धो और कान्हू के साथ उनके भाई चांद-भैरव और बहन फूलो-झानो ने भी अंग्रेजों से लड़ते हुए अपने प्राणों की आहुति दी। सिद्धो को पचकठिया में और कान्हू को भोगनाडीह में फांसी दी गई। आज भी इन नायकों की मूर्तियाँ संताल परगना के गांवों के चौराहों पर स्थापित हैं, जिन्हें आदिवासी समाज भगवान की तरह पूजता है।
इतिहास में हूल का स्थान
इतिहास में अब भी नहीं मिली उचित जगह
हालांकि, यह क्रांति 1857 के पहले हुई थी, लेकिन भारतीय इतिहास की पुस्तकों में इसे उचित स्थान नहीं मिला। इतिहासकार और शोधकर्ता लंबे समय से यह मांग कर रहे हैं कि हूल को भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का दर्जा मिले। कार्ल मार्क्स ने भी अपनी रचनाओं में इस विद्रोह का उल्लेख किया है।
ठाकुर का परवाना
राजस्व पर संतालों का दावा और ठाकुर का परवाना
30 जून को सिद्धो-कान्हू ने एक सभा आयोजित कर 'ठाकुर का परवाना' जारी किया, जिसमें अंग्रेजों को देश छोड़ने और राजस्व वसूली का अधिकार संतालों को देने का एलान किया गया। यह आंदोलन 1860-65 तक रुक-रुककर जारी रहा।