चाबहार बंदरगाह पर अमेरिका के प्रतिबंध: भारत की रणनीतिक चुनौतियाँ
अमेरिका ने ईरान के चाबहार बंदरगाह पर दी गई प्रतिबंध छूट को समाप्त कर दिया है, जो भारत की सामरिक और आर्थिक योजनाओं के लिए एक बड़ा झटका है। चाबहार बंदरगाह भारत के लिए अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुँच का महत्वपूर्ण मार्ग है। इस निर्णय से भारत की कनेक्टिविटी रणनीति प्रभावित हो सकती है, खासकर जब चीन पहले से ही पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को विकसित कर रहा है। भारत को अब अमेरिका और ईरान के साथ संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है, ताकि उसकी भू-रणनीतिक स्वतंत्रता बनी रहे।
Sep 19, 2025, 11:58 IST
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अंतरराष्ट्रीय राजनीति में बदलाव
अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भू-रणनीति स्थिर नहीं रहती। राष्ट्रों के हित, गठजोड़ और नीतियाँ समय-समय पर बदलती रहती हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप प्रशासन द्वारा ईरान के चाबहार बंदरगाह पर दी गई प्रतिबंध छूट को समाप्त करने का निर्णय इसी बदलाव का हिस्सा है। यह कदम केवल ईरान के खिलाफ “अधिकतम दबाव नीति” का हिस्सा नहीं है, बल्कि भारत की सामरिक और आर्थिक योजनाओं के लिए भी एक गहरी चोट साबित हो सकता है।
चाबहार बंदरगाह का महत्व
ईरान के सिस्तान-बलूचिस्तान प्रांत में स्थित चाबहार बंदरगाह भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह भारत के पश्चिमी तट के निकटतम ईरानी बंदरगाह होने के साथ-साथ पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह का प्रतिपक्ष भी है। 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तेहरान यात्रा के दौरान भारत, ईरान और अफगानिस्तान के बीच चाबहार समझौता हुआ था, जिसके तहत इस बंदरगाह को मध्य एशिया और अफगानिस्तान तक पहुँचने का एक वैकल्पिक मार्ग बनाया गया। भारत ने 13 मई, 2024 को चाबहार बंदरगाह के संचालन के लिए ईरान के साथ 10 साल का करार किया था। यह पहली बार था जब भारत ने किसी विदेशी बंदरगाह का प्रबंधन संभालने की पहल की थी। वर्ष 2003 से ही भारत इस परियोजना पर काम करने का प्रस्ताव रख रहा था ताकि पाकिस्तान को दरकिनार करते हुए अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुंच बनाई जा सके। लेकिन ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से इस बंदरगाह का विकास धीमी गति से हुआ। इस पूरे प्रोजेक्ट के तहत अंतरराष्ट्रीय उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा (आईएनएसटीसी) नामक एक सड़क और रेल परियोजना भी बनाई जानी है। करीब 7,200 किलोमीटर लंबी यह परियोजना भारत, ईरान, अफगानिस्तान, आर्मेनिया, अजरबैजान, रूस, मध्य एशिया और यूरोप के बीच माल ढुलाई के लिए प्रस्तावित है।
भारत की सहायता और प्रतिबंध
भारत ने अब तक लगभग 25 मिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य के उपकरण, क्रेन और आवश्यक मशीनरी वहाँ उपलब्ध करवाई है। 2018 से भारत की कंपनी इंडिया पोर्ट्स ग्लोबल लिमिटेड (IPGL) इस बंदरगाह का संचालन कर रही है। अब तक 90,000 से अधिक कंटेनर यातायात और 8.4 मिलियन टन से अधिक कार्गो यहाँ से संभाला जा चुका है। कोविड काल में भारत ने इसी मार्ग से अफगानिस्तान को 25 लाख टन गेहूं और 2000 टन दालें भेजीं। इस प्रकार चाबहार केवल व्यापारिक केंद्र नहीं बल्कि भारत की मानवीय सहायता कूटनीति का भी सशक्त माध्यम रहा है।
अमेरिका का निर्णय और उसके प्रभाव
अमेरिका ने 2018 में इस परियोजना को प्रतिबंधों से छूट दी थी ताकि अफगानिस्तान को राहत और विकास कार्यों में मदद मिल सके। किंतु अब ट्रंप प्रशासन ने यह छूट समाप्त कर दी है। 29 सितंबर 2025 से यह छूट हट जाएगी और इस बंदरगाह से जुड़े किसी भी लेन-देन पर Iran Freedom and Counter-Proliferation Act (IFCA) के तहत प्रतिबंध लागू हो सकते हैं। अमेरिकी विदेश विभाग के प्रमुख उप प्रवक्ता थॉमस पिगॉट ने कहा कि विदेश मंत्री ने 2018 में अफगानिस्तान पुनर्निर्माण और आर्थिक विकास के लिए दी गई प्रतिबंध छूट को वापस ले लिया है। यह प्रतिबंध 29 सितंबर से प्रभावी होंगे। इसके बाद चाबहार बंदरगाह का संचालन करने वाले या संबंधित गतिविधियों में शामिल लोग प्रतिबंधों के दायरे में आ सकते हैं।
भारत की रणनीतिक चुनौतियाँ
चाबहार भारत के लिए अफगानिस्तान और मध्य एशिया तक पहुँच का सबसे सुरक्षित और कारगर विकल्प था। पाकिस्तान की असहयोगी नीति के चलते भारत वहाँ सीधी सड़क और रेलमार्ग से नहीं पहुँच सकता। अब यदि प्रतिबंध कड़े होते हैं, तो भारत की कनेक्टिविटी रणनीति को गहरा झटका लगेगा। इसके अलावा, चीन पहले ही पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह को विकसित कर चुका है और “चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा” (CPEC) के जरिए उसे मध्य एशिया से जोड़ रहा है। यदि भारत चाबहार में पिछड़ता है, तो यह सीधे चीन और पाकिस्तान के लिए भू-रणनीतिक लाभ साबित होगा। साथ ही, पिछले एक दशक में भारत और अमेरिका के रिश्ते रणनीतिक साझेदारी में तब्दील हुए हैं। परंतु चाबहार पर प्रतिबंध का निर्णय यह दिखाता है कि अमेरिका की ईरान नीति भारत के हितों से टकरा सकती है। भारत को अब संतुलन बनाना होगा ताकि अमेरिका और ईरान दोनों से रिश्ते बिगड़ें नहीं।
चाबहार का महत्व और भारत के विकल्प
भारत के लिए चाबहार केवल एक बंदरगाह नहीं, बल्कि रणनीतिक विमर्श का केंद्र है। यह “उत्तर-दक्षिण परिवहन गलियारा” (International North-South Transport Corridor) का भी अहम हिस्सा है, जो भारत को रूस और यूरोप तक पहुँचाने की क्षमता रखता है। भारत को अमेरिका से यह स्पष्ट करना होगा कि चाबहार केवल ईरान का नहीं, बल्कि अफगानिस्तान पुनर्निर्माण और क्षेत्रीय स्थिरता का मुद्दा है। यदि भारत चाबहार से पीछे हटता है, तो अफगानिस्तान एक बार फिर चीन-पाकिस्तान की गिरफ्त में जा सकता है। इसके अलावा, भारत को ऊर्जा सुरक्षा और सामरिक हितों के मद्देनज़र ईरान के साथ अपने रिश्ते और मज़बूत करने होंगे। प्रतिबंधों के बीच भी व्यापारिक और सांस्कृतिक सहयोग को बनाए रखने का रास्ता तलाशना होगा। साथ ही, शंघाई सहयोग संगठन (SCO), ब्रिक्स और यूएन जैसे मंचों पर भारत को यह मुद्दा उठाना चाहिए कि एक सामरिक बंदरगाह पर प्रतिबंध क्षेत्रीय सहयोग की भावना के विपरीत है।
भारत की रणनीतिक स्वतंत्रता
अमेरिका का यह निर्णय भारत के लिए एक सामरिक झटका है, लेकिन यह अंत नहीं है। भारत ने पिछले एक दशक में जिस दूरदर्शी दृष्टिकोण से चाबहार परियोजना को आगे बढ़ाया है, उसे आसानी से छोड़ा नहीं जा सकता। यह केवल एक बंदरगाह नहीं, बल्कि भारत की भू-रणनीतिक स्वतंत्रता का प्रतीक है। भारत को अब और दृढ़ नीतिगत फैसले लेने होंगे। यदि चाबहार को प्रतिबंधों की भेंट चढ़ने दिया गया, तो इसका सीधा फायदा चीन और पाकिस्तान को मिलेगा। लेकिन यदि भारत कूटनीति और सामरिक चातुर्य का इस्तेमाल कर इस चुनौती का सामना करता है, तो यह संकट अवसर में भी बदल सकता है। कहा जा सकता है कि चाबहार बंदरगाह केवल ईरान की ज़मीन पर नहीं, बल्कि भारत की सामरिक साख पर भी टिका हुआ है।